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योगशास्त्र : चतुर्थ प्रकाश
जङ्काया मध्यभागे तु, संश्लेषो यत्र जङ्कया।
पद्मासनमतिप्रोक्तं तदासन-विचक्षणः ॥१२९॥ अर्थ-आसनविशेषज्ञों ने एक जांच के साथ दूसरी जांघ को मध्यभाग में मिला कर रखने को पपासन कहा है। अब भद्रासन कहते हैं
सम्पुटीकृत्य मुष्का, तलपादौ तथोपरि ।
पाणिकच्छपिकां कुर्याद् यत्र भद्रासनं तु तत् ॥१३०॥ अर्थ-दोनों पैरों से तलभाग वृषण-प्रदेश में (अण्डकोषों की जगह) एकत्र कर उसके ऊपर दोनों को अंगुलियों एक दूसरी अंगुली में गल कर रखना 'मद्रासन' कहलाता है।
पंतजलि ने भद्रासन का लक्षण इस प्रकार कहा है-पैरों के तलभाग को वृषण के समीप में संपुटरूप बना कर उसके ऊपर दोनों हाथों को अंगुलियां परस्पर एक दूसरे में रखना ।' अब दंडासन कहते हैं
श्लिष्टाङ गुली श्लिष्टगुल्फो भूश्लिष्टोरू प्रसारयेत् ।
यत्रोपविश्य पादौ तद्, दण्डासनमुदीरितम् ॥१३१॥
अर्थ-पैरों को अंगुलियां समेट कर एटी के ऊपर वाली गांठ (टखना) एकत्र करके नितम्ब को भूमि से स्पर्श करके बैठे ; पर लम्बे करे, उसे दण्डासन कहा है।
पंतजलि ने इस प्रकार कहा है कि जमीन पर बैठ कर अंगुलियों को मिला कर, एड़ी भी एकत्र करके जंघा भूमि से स्पर्श कराई जाए और पर लम्बे किये जाएं, वह दण्डासन होता है। उसका अभ्यास करना चाहिए । अब उत्कटिकासन और गोदोहिकासन कहते हैं
पुतपाष्णिसमायोगे, प्राहुरुत्कटिकासनम् ।
पाणिभ्यां तु भुवस्त्यागे, तत्स्याद् गोदोहिकासनम् ॥१३२॥ अर्य-जमीन से लगी हुई एड़ियों के साथ जब दोनों नितम्ब मिलते हैं, तब उत्कटिकासन होता है। इसी आसन में भगवान महावीर को केवलनान उत्पन्न हुआ था। कहा है कि "मिका के बाहर जुबालिका नदी के किनारे बैशाख सुदी बसमी के दिन तीसरे पहर छठ्ठतप में शालवृक्ष के नीचे वीरप्रभु उत्कटिकासन में थे, उस समय उन्हें केवलमान हुआ था।" उसी आसन से बैठ कर दोनों एरियों से जब भूमि का त्याग किया जाता है और गाय दूहने के समय में जिस आसन से बैठा जाता है, उसे गोदोहिकासन कहते हैं। प्रतिमाकल्पी मुनि इसी आसन को धारण करते हैं । अब कायोत्सर्गासन कहते हैं
प्रलम्बितमुजतन्नमूचस्पत्यासित र वा। स्थानं कायानपेक्षं यत्, eस कीर्तितः ॥१३॥