________________
५१६
पंचवायु का वर्णन, उनके ध्यान करने योग्य बीजाक्षर, प्राणादिजय से लाभ
रक्तो हत्कण्ठ-तालु-घ्र-मध्यमूर्धनि संस्थितः ।
उदानो वश्यतां नेयो, गत्यगतिनियोगतः ॥१८॥ अर्थ-उदानवायु का वर्ण लाल है। हृदय, कंठ, तालु, भ्र कुटि का मध्यभाग और मस्तक में उसका स्थान है। इसे भी गति-अगति के प्रयोग से वश में करना चाहिए। अब गति-अगति के प्रयोग कहते हैं
नासाकर्षणयोगेन, स्थापयेत् तं हृदादिषु ।
बलादुत्कृष्यमाणं च, रुध्वा रुध्वा वशं नयेत् ॥१९॥ अर्थ- नासिका के द्वारा बाहर से वायु को खींच कर उदानवायु को हृदयादि स्थानों में स्थाति करना चाहिए। यदि वह वायु दूसरे स्थान में जाता हो तो उसे जबरदस्ती रोक कर उसी स्थान पर बार-बार निरोध करना चाहिए। अर्थात कुभक प्राणायाम करके कुछ समय रोके, बाद में रेचक करे । मतलब यह है-नासिका के एक छिद्र से वाय धीरे-धीरे बाहर निकाल देना चाहिए, फिर उसी छिद्र द्वारा उसे अन्दर खींच कर कुभक प्राणायाम करना चाहिए । ऐसा करने से वायु वशीभूत हो जाता है। अब व्यान का वर्ण-स्थानादि कहते है
सर्वत्वग्वृत्तिको व्यानः, शक्रकामुकसन्निभः ।
जेतव्यः कुम्भकाभ्यासात्, संकोच-प्रसूतिक्रमात् ॥२०॥ ___ अर्थ-व्यान-वायु का वर्ण इन्द्रधनुष के समान विविध रंगवाला है। त्वचा के सब भागों में उसका निवास-स्थान है। संकोच और प्रसार अर्थात् पूरक और रेचक प्राणायाम के क्रम से तथा कुम्भक के अभ्यास से उसे जीतना चाहिए। पांचों वायुओं के ध्यान करने योग्य वीजाक्षर बताते हैं -
प्राणापान-समानोदान-व्यानेष्वेषु वायुषु ।
ये 4 रौलौ बीजानि, ध्यातव्यानि यथाक्रमम् ॥२१॥ अर्थ-प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान वायु को उस स्थान से जीतने के लिए पूरक, कुंभक और रेचकप्राणायाम करते समय क्रमशः 'यें आदि बीजाक्षरों का ध्यान करना चाहिए। अर्थात् प्राणवायु को जीतने के समय 'मैं' बीज का, अपानवायु को जीतने के समय '' का, समान को जीतने के समय बैं' का. उदान को जीतने के समय 'रों' का और व्यान को जीतने के समय 'लौं' बीजाक्षर का ध्यान करना चाहिए । अर्थात् 'मैं' आदि अक्षरों की आकृति की कल्पना कर उसका जाप पूरक, कुमक और रेचक करते समय करना चाहिए। अब तीन श्लोकों से प्राणादि-जय करने का लाभ बताते हैं
प्राबल्यं जाठरस्याग्ने, दीर्घश्वासमरुज्जयो । लाघवं च शरीस्य, प्राणस्य विजये भवेत् ॥२२॥