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पविध श्रमणधर्म : स्वरूप, भेद और लाभ
४८५ थाहार-पानी लेते हैं। रजोहरण और वस्त्रपात्रादि अन्य उपकरण भी संयम एवं शरीर की रक्षा के लिए धारण करते हैं ; किन्तु लोभ या ममता से धारण नहीं करते । यही परिग्र हत्यागरूप आकिंचन्य का
(६) तप-यह संवर और निर्जरा का हेतुरूप होता है, जिसका वर्णन पहले कर आए हैं। वह पूर्वोक्त बारह प्रकार का होता है, किन्तु प्रकीर्णकरूप मे अनेक प्रकार का भी है। वह इस प्रकार है . यवमध्य, वज्रमध्य, चान्द्रायण, कनकावली, रत्नावली, सर्वतोभद्र, भद्रोत्तर, वर्धमान आयबिलतप इत्यादि । बारह प्रकार की भिक्षुप्रतिमा भी तप है, जिसमें एक महीने से ले कर क्रमशः सात महीने तक सात प्रतिमाएं है, उसके बाद सात-सात रात्रि की तीन प्रतिमाएं हैं, फिर तीन दिन-रात्रि की एक और एक दिन-रात्रि की एक प्रतिमा होती है।
(७) भान्ति-शक्य हो, या अशक्य, उस सहन करने के परिणाम बढ़ाना क्षमा है। कोष का निमित्त मिलने पर आत्मा मे सद्भाव एवं दुर्भाव का विचार करने से ; क्रोध करने से उत्पन्न होने वाले दोपों पर विचार करने में, बालस्वभाव का चिन्तन करने से, अपने कृतकों के उदय में आने का चिन्तन करने से एवं क्षमागुण धारण करने से होने गले लाभ का विचार करने से क्षमा उत्पन्न होती है। यदि दूसरे लोग मुझ में दोष के कारण मेरे पर आक्रोश करते हैं, वह तो मेरे ही दोषों के अस्तित्व (सद्भाव) को कहते हैं । यदि मुझ में वह दोष नही है, तो वे असत्य बोलते हैं, अतः मुझे उन पर क्षमा करनी चाहिए। कहा भी है-यदि कोई आक्रोश करता है नो बुद्धिमान समझदार आदमी को वस्तुतत्व पर विचार करना चाहिए कि यदि उसका आक्रोश मत्य है तो उस पर कोप करने से क्या लाभ और यदि असत्य है तो अज्ञानी के प्रति क्रोध करने से भी क्या फायदा? यो क्रोध के दोषों का चिन्तन करके क्षमा रखनी चाहिए । क्रोध करने वाला तो अवश्य ही पापकर्म का बन्धन करता है ; उससे दूसरे को मारने की भावना जागती है, अहिंसाग्रत ही खत्म हो जाता है। क्रोध के आवेश में आ कर साधक अपने सत्यव्रत को भी नष्ट कर देता है। क्रोधावेश में दीक्षा-अवस्था की बात को भूल जाता है। और अदत्तादान-चोरी करता है। ढेप में आ कर पर-पाखंडिनी स्त्री के साथ (मानसिक रूप से) अब्रह्मसेवन करके चौथे व्रत का भी खण्डन करता है । अत्यन्त क्रोधी बना हुआ योगी अविरति गृहस्थों से सहायता की अपेक्षा रख कर उन पर ममना-मूर्छा भी करता है, इससे पांचवां व्रत भी नष्ट हो जाता है; फिर उत्तरगुणों के भंग की तो बात ही कहां रही ? वे भी खत्म हो जाते हैं। क्रोधी आत्मा गुरु का अपमान करके आशातना कर बैठता है । इस प्रकार क्रोध के दोपों पर विचार करे । वालस्वभाव (बेसमझी वाले) पर भी क्षमा रखे। उसके स्वभाव पर यों चिन्तन करे कि बाल (अज्ञानी) जीव किसी समय परोक्ष तो कभी प्रत्यक्ष आक्रोश करता है, कभी तो आक्रोश करते हुए ताडन करने लगता है, कभी मारने-पीटने लगता है, कभी धर्मभ्रष्ट करना चाहता है ; उस समय यह सोचें कि 'मेरा इतना सद्भाग्य है कि यह मेरे पीठ पीछे आक्रोश करता है सामने या प्रत्यक्ष में तो कुछ नहीं बोलता ; इतना तो भला है। कदाचित् प्रत्यक्ष में आक्रोश करता हो, तब यों कहे कि-' यह आदमी कितना भला है कि मुख से आक्रोश के शब्द बोल कर ही रह जाता है, मुझे मारता नहीं है।" यदि मारता हो तो यह कहे कि यह भला यादमी केवल मारता-पीटता ही है, मेरे प्राणों का नाश तो नहीं करता । यदि कोई जान लेने पर उतारू हो तो यह कहे कि यह प्राणनाश ही तो करता है, मुझे धर्म से भ्रष्ट तो नहीं करता ।" इस प्रकार भागे से मागे अभाव में अपना लाभ माने और बालस्वभाव पर विचार करे । स्वयं किये हुए कर्म उदय में पाएं