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बादश भावनाओं का समता से सम्बन्ध और ध्यान का अवलम्बन प्राप्त करेंगे और वर्तमानकाल में जो भी प्राप्त कर रहे हैं, वह सब अनुपम प्रभाव और वैभवस्वरूप बोधिरत्न का प्रभाव है । इसलिए इस बोधिरत्न की उपासना करो, इसी की स्तुति करो, इसी का श्रवण करो ; दूसरे पदार्थ से क्या प्रयोजन है ? इस प्रकार बोधिभावना पूर्ण हुई।"
निर्ममत्व की कारणभूत भावनाओं का उपसंहार करते हुए प्रस्तुत समताधिकार से उसका सम्बन्ध जोड़ते हैं
भावनाभिरविश्रान्तमिति भावितमानसः।
निर्ममः सर्वभावेषु, समत्वमवलम्बते ॥११०॥ अर्थ-इन बारह भावनाओं से जिसका मन निरन्तर भावित रहता है। यह सभी मावों पर ममता-रहित हो कर समभाव का मालम्बन लेता है। समभाव का फल कहते हैं
विषयेभ्यो विरक्तानां, साम्यवासितचेतसाम् ।
उपशाम्येत् कषायाग्निर्बोधिदीपः समुन्मिषेत् ॥१११॥ अर्थ-विषयों से विरक्त और समभाव से युक्त चित्त वाले योगी पुरुषों की कवायरूपी अग्नि शान्त हो जाती है और सम्यक्त्वरूपी दीपक प्रगट हो जाता है।
भावार्थ-इस प्रकार इन्द्रियों पर विजय से कषायों पर विजय होती है, मन की शुद्धि से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती है, रागद्वेष पर जय से मनःशुद्धि होती है, समता से रागद्वेष पर विजय होती है और भावना के हेतुस्वरूप निर्ममत्व से समता-प्राप्ति का प्रतिपादन किया है । अब आगे का प्रकरण कहते हैं
समत्वमवलम्ब्याथ, ध्यानं योगी समाश्रयेत् ।
विना समत्वमारब्धे, ध्याने स्वात्मा विडम्ब्यते ॥११२॥ अर्थ-समत्व का अवलम्बन लेने के बाद योगी को ध्यान का आश्रय लेना चाहिए। समभाव की प्राप्ति के बिना ध्यान के प्रारम्भ करने पर अपनी आत्मा विम्बित होती है। क्योंकि बिना समत्व के ध्यान में भलीभांति प्रवेश नहीं हो सकता।
व्याख्या-उसके बाद योगी-मुनि अपने चित्त में दृढ़तापूर्वक समता का अवलंबन ले कर ध्यान
करता है। ध्यान का अधिकार आगे कहेंगे। यद्यपि ध्यान और समता दोनों एक ही है, फिर भी विशेष प्रकार की समता को ध्यान कहते हैं । जिस समता का बारम्बार अभ्यास किया जाय, ऐसी समता ध्यानस्वरूप है । इसी बात को व्यतिरेक से कहते हैं। अनुप्रेक्षा आदि के बल से प्राप्त करने योग्य समता के बिना ध्यान प्रारंभ किया जाए तो आत्मा विडंबना प्राप्त करता है। इसलिए जिसने इन्द्रियों पर काबू नहीं किया, उसने मन की शुद्धि नहीं की, रागद्वेष को नहीं जीता; उसने निर्ममत्व प्रगट नहीं किया, तथा समता का अभ्यास नहीं किया है। जो मूढ़ मनुष्य गतानुगतिक-परम्परा से ध्यान करता है, वह दोनों लोक के मार्ग से पतित होता है । इसलिये यथाविधि ध्यान किया जाए तो आत्मा की विडम्बना नहीं होती, और वह ध्यान आत्मा के लिए हितकारी होता है।