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योगशास्त्र : चतुर्थ प्रकाश व्याख्या-विशेष प्रकार से कमों के लाघव (हलकेपन) के कारण किसी प्रकार स्वयंभूरमण समुद्र में युगछिद्र में कील आ जाने (के न्याय) की तरह मनुष्यत्वप्राप्ति के बाद शक, यवन आदि अनार्यदेश के अतिरिक्त मगधादि आर्यदेश में जन्म होता है, आर्यदेश मिलने पर भी अन्त्यज आदि नीची जाति से रहित उत्तमजाति-कुल में उसका जन्म होता है। उत्तमजाति-कुल मिलने पर भी समस्त इन्द्रियों की परिपूर्णता तथा सर्वेन्द्रियपटुता के साथ लम्बा आयुष्य तभी मिलता है, जब अशुभकर्म कम हुए हों, उपलक्षण से पुण्य की वृद्धि हुई हो। इतना होने पर ही इन सभी की प्राप्ति हो सकती है। कम आयुष्य वाला इसलोक या, परलोक के कार्य करने में समर्थ नहीं हो सकता, श्री वीतराग भगवान् ने भी 'मायुष्यमान् गौतम !' सम्बोधन करके दूसरे गुणों के साथ लम्बी आयु को मुख्यता दी है।
प्राप्तेषु पुण्यतः श्रद्धा-कथकवणेष्वपि ।
तत्वनिश्चयरूपं तद्, बोधिरत्नं सुदुर्लभम् ॥१०६॥ अर्थ-कर्मों के लाघव (हलकापन) से और पुण्य अर्थात् शुभकर्म के उदय से धर्मामिलावारूप बढा, धर्मोपदेशक गुरुमहाराज और उनके वचन-श्रवण करने की प्राप्ति होती है। परन्तु यह सब होने पर भी तत्व-निश्चयरूप (अथवा तत्वरूप) देव, गुरु और धर्म के प्रति हद अनुराग, तद्रूप बोधि-(सम्यक्त्वरत्न की प्राप्ति) होना अत्यन्त कठिन है।
__व्याख्या-स्थावर से त्रसत्व अतिदुर्लभ है, इससे बोधिरत्न अतिदुर्लभ है। यहां दुर्लभम् के पूर्व सु' शब्द बोधिरत्न की अत्यन्त दुर्लभता बताने हेतु प्रयुक्त है। मिथ्यादृष्टि भी प्रसत्व आदि से धर्मश्रवण की भूमिका तक अनन्त वार पहुंच जाता है; परन्तु वह बोधिरत्न की प्राप्ति नहीं कर सकता। मोक्षवृक्ष का बीज सम्यक्त्व है।
___ इस विषय के आंतरपलोकों का भावार्थ कहते हैं-इस जैनधर्मशासन में राज्य मिलना, चकवर्ती होना दुर्लभ नहीं कहा, किन्तु बोषिरत्न की प्राप्ति करना अत्यन्त दुर्लभ बताया है। सभी जीवों ने जगत् के सभी भाव पहले अनंत बार प्राप्त किए हैं, परन्तु बोधिरत्न कभी प्राप्त नहीं किया, क्योंकि उनका भव-भ्रमण चालू रहा ; और अनंतानंत पुद्गलपरावर्तनकाल बीत जाने के बाद जब अर्धपुदगलपरावर्तनकाल शेष रहता है, जब ससार के सभी शरीरधारी जीवों के सर्वकर्मों की अंत:कोटाकोटी स्थिति रह जाती है, तब कोई जीव प्रथि का भेदन कर उत्तम बोधिरत्न की प्राप्ति करता है। कितने ही जीव यथाप्रवृत्तिकरण करके प्रन्थि के निकट-प्रदेश में आते हैं, परन्तु बोधिरत्न की प्राप्ति किए बिना वापिस चले जाते हैं। कितने ही जीव बोधि-रत्न की प्राप्ति करते हुए वापिस गिर जाते हैं, और फिर भवचक्र में भ्रमण करते रहते हैं । कुशास्त्रों का श्रवण, मिथ्यादृष्टियों के साथ संग, कुवासना, प्रमाद का सेवन इत्यादि बोषिरत्न का नाश करते हैं । यद्यपि चारित्र की प्राप्ति को दुर्लभ कहा है, परन्तु वह बोधिप्राप्ति होने पर ही सफल है, उसके बिना कोरी चारित्ररत्नप्राप्ति निष्फल है। अभव्य जीव भी चारित्र प्राप्त कर पंवेयक देवलोक तक जाता है; परन्त बोधि के बिना बह निवृति-सुख नहीं प्राप्त कर सकता। बोधिरत्न नहीं प्राप्त करने वाला चक्रवर्ती भी रंक के समान है, बोर बोधिरत्न प्राप्त करने वाला रंक भी चक्रवर्ती से बढ़कर है। सम्यक्त्व. प्राप्ति करने वाला पीव संसार में कदापि अनुराग नहीं करता ; वह ममतारहित होने से मुक्ति की आराधना अर्गला के बिना (मिराबाध) करता है । जिस किसी ने पहले इस मुक्तिपद को प्राप्त किया है, और जो आगे