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योगशास्त्र : चतुर्थ प्रकाश
अर्थ — जगत् का कोई भी जीव पाप न करे, तथा कोई भी जीव दुःखी न हो, समस्त जीव दुःख से मुक्त हो कर सुखी हों, इन प्रकार का चिन्तन करना ; मैत्रीभावना है। व्याख्या - उपकारी अथवा अपकारी कोई भी जीव दुःख के कारणभूत पाप का सेवन न करे । पाप से रहित होने पर कोई भी जीव दुःखी न बने। देव, मनुष्य तिर्यंच और नरक चार गति के पर्याय को पाने वाले जगत् के समस्त जीव संसार-दुःख से सदा मुक्त बन कर मोक्ष सुख प्राप्त करें; इस प्रकार के स्वरूप वाली मति मैत्री भावना है। किसी एक का मित्र हो, वह वास्तव में मित्र नहीं है । यों तो हिंसक व्याघ्र, सिंह आदि की भी अपने बच्चों पर मंत्री होती है । किन्तु वह मंत्री मंत्री नहीं है । इस लिए मेरी समस्त जीवों के प्रति मित्रता है । अत: मन, वचन और काया से उन पर मैंने अपकार किया हो, उन सभी को मैं खमाता हूँ ; यही मंत्री भावना है ।"
अब प्रमोद भावना का स्वरूप कहते हैं
अपास्ताशेषदोषाणां
तत्वावलोकनाम् । गुणेषु पक्षपातो, यः स प्रमोदः प्रकीर्तितः ॥ ११९॥
अर्थ- जिन्होंने सभी दोषों का त्याग किया है, और जो वस्तु के यथार्थस्वरूप को देखते हैं, उन साधुपुरुषों के गुणों के प्रति आदरभाव होना, उनकी प्रशंसा करना, 'प्रमोद भावना है।
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व्याख्या - प्राणि-वघादि सभी दोषों का जिन्होंने त्याग कर दिया है और जिनका स्वभाव पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को जानने का है; इस प्रकार यहाँ दोनों विशेषताओं से ज्ञान और क्रिया दोनों के संयुक्तरूप से मोक्षहेतु होने का कथन किया है । भगवान् भाष्यकार ने कहा है- "नाण - किरियाहि मोक्खो" =अर्थात् ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष होता है। 'इस प्रकार के गुणवान् मुनियों के क्षयोपशमिकादि आत्मिक गुण, तथा शम, इन्द्रियों का दमन, औचित्य, गांभीर्य, धैर्यादि गुणों के प्रति अनुराग करना, गुणों का पक्ष लेना, उनके प्रति विनय, वंदन, स्तुति, गुणानुवाद, वैयावृत्य आदि करना । इस तरह स्वयं और दूसरों के द्वारा की हुई पूजा से उत्पन्न, सभी इन्द्रियों से प्रगट होने वाला मन का उल्लास, प्रमोद-भावना है ।"
अब कारुण्यभावना का स्वरूप कहते हैं
दीनेष्वर्त्तेषु भीतेषु याचमान: जीवितम् ।
प्रतीकारपरा बुद्धिः कारुण्यमभिधीयते ॥ १२०॥
अर्थ- दीन, पीड़ित, भयभीत और जीवन की याचना करने वाले प्राणियों के दुःख को दूर करने की बुद्धि 'करुणा-भावना' कहलाती है ।
व्याख्या-मति श्रुत- अज्ञान एवं विभंगज्ञान के बल से हिंसाप्रधान शास्त्रों की रचना करके जो स्वयं संसार में डूबते हैं और अपने अनुयायियों को भी डूबोते हैं, वे बेचारे दया के पात्र होने से दीन हैं । जो नये-नये विषयों का उपार्जन करते हैं; पूर्वोपार्जित विषयों की भोगतृष्णारूपी अग्नि में जलने से दुःखी हैं; जो हित की प्राप्ति और अहित का त्याग करने के बजाय उलटा आचरण करते हैं; पहले धनोपार्जन करते हैं, फिर उसकी रक्षा करते हैं, फिर उसे भोग में खर्च करते हैं अथवा धननाश जाने पर पीड़ित