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धर्मस्वास्यात - भावना का स्वरूप और सम्यग्धर्म के १० भेद
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निर्वाणपद प्राप्त कराता है । इस विषय में प्रयुक्त आन्तरश्लोकों का भावार्थ यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैंजैसे चारों ओर से सरोवर के द्वार प्रयत्नपूर्वक बंद कर दिये जांय तो नया जलप्रवाह सरोवर में आने से रुक जाता है ; वैसे ही आश्रवों का निरोध करने से संवर से समावृत आत्मा नये-नये कर्मद्रव्यों से नहीं भरता । जिस तरह सरोवर में इकट्ठा किया हुआ जल सूर्य के प्रचण्डताप से सूख जाता है ; उसी तरह जीव के पहले बांधे हुए संचित समस्त कर्म तप से सुखाए जांय तो सूख कर क्षीण हो जाते हैं। बाह्यतप की अपेक्षा आभ्यन्तरतप निर्जरा का प्रबल कारण है ध्यानतप का तो मुनियों के जीवन में एकछत्र राज्य होता है। दीर्घकाल से उपार्जित बहुत से प्रबलकर्मों को ध्यानयोगी तत्काल क्षीण कर देता है । जैसे शरीर में उत्पन्न हुआ अजीर्ण आदि विकार (दोष) लंघन करने से सूख जाता है, वैसे ही आत्मा में पूर्वसचित विकाररूप कर्म तप से सूख जाते हैं। जैसे प्रचण्डवायु से मेघसमूह छिन्नभिन्न या विलीन हो जाते हैं; वैसे ही तपस्या से भी कर्मसमूह छिन्नभिन्न हो जाते हैं। यदि संबर और निर्जरा इन दोनों से दोनों ओर से कर्मों को क्षय करने का कार्य जारी रहे तो आत्मा प्रकर्षस्थिति प्राप्त करके इन्हीं दोनों की स्थिरता ( ध्रुवता ) से मोक्ष प्राप्त कर लेता है। दोनों प्रकार के तपश्चरण से निरा करता हुआ निर्मलबुद्धि आत्मा एक दिन सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष प्राप्त करता है। इस प्रकार की निर्भयता से तप को पुष्ट करने वाली, समग्र कर्मों की विघातक, संसारसमुद्र पार करने के लिए सेतुबंध के समान, ममताघात में कारणभूत निर्जराभावना का चिन्तन करना चाहिए ।
अब धर्म - स्वाख्यात - भावना के सम्बन्ध में कहते हैं
क्षणभर में उसमें भी
स्वाख्यातः खलु धर्मोऽयं भगवद् जितोः ।
यं समालम्बमानो हि, न मज्जेद् भवसागरे ॥९२॥
अर्थ - जिनोत्तम भगवन्तों ने इस धर्म का भलीभांति प्रतिपादन किया है। जिसका आलम्बन लेने वाला जीव संसारसागर में नहीं डूबता ।
भावार्थ - धर्म का विशेषण यहाँ सु + आ + ख्यात = स्वास्यात है, जिसका अर्थ हैकुर्तीर्थिक धर्म की अपेक्षा प्रधानत्व से युक्त, अविधि का निषेध करने वाला तथा मर्यादाओं से निश्चित किया हुआ एवं वीतराग-सर्वज्ञों द्वारा कथित धर्म ।
अब इस सम्यग्धर्म के दस भेद कहते हैं
संयमः सूनृतं शौचं ब्रह्माकिंचनता तपः ।
क्षान्तिर्मार्दवमृजुता मुक्तिश्च दशधा स तु ॥९३॥
अर्थ- वह धर्म दस प्रकार का है - ( १ ) संयम, (२) सत्य, (३) शौच, (४) ब्रह्मचर्य, (५) अकिञ्चनता, (६) तप, (७) क्षमा, (८) मडुता, (६) सरलता और (१०) निलभता ।
व्याख्या - (१) संयम का अर्थ जीवदया है। वह १७ प्रकार का है। पृथ्वीकाय, अपकाय, अग्निकाय, वायुका और वनस्पतिकाय पर संयम ; दो-तीन-चार और पांच इन्द्रियों वाले जीवों का मन-वचन-काया द्वारा कृत, कारित और अनुमोदन से सरम्भ, समारम्भ के त्यागरूप संयम करना ; इसी प्रकार पुस्तकादि अजीवरूप संयम भी & प्रकार का है। दुःषमकालदोष के प्रभाव से, बुद्धिबल-कम होने से शिष्यों के उपकारार्थं यतनापूर्वक प्रतिलेखन- प्रमार्जन सहित पुस्तकादि रखना अजीवसंयम है ।