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योगशास्त्र : चतुर्थ प्रकाश
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स्त्रियों के भोग में आसक्त बने हुए निरन्तर नितम्ब पर घंटा बांधे बार-बार नृत्य गीत करने वालों में. भला धर्म कैसे हो सकता है ? तथा अनन्तकाय, कन्दमूल फल और पत्तों का भोजन करने वाले तथा स्त्रीपुत्र के साथ वनवास स्वीकार करने वाले तथा भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय या आवरणीय अनाचरणीय सब पर समभाव रखने वाले योगी के नाम प्रसिद्धि पाने वाले कौलाचार्य के अन्तेवासी शिष्य तथा दूसरे अथवा जिन्होंने जिनेन्द्रशासन के रहस्य को जाना नहीं है, उनमें धर्म कहां से हो सकता है ? उस धर्म का फल क्या है ?, उसकी सुन्दर (शुद्ध) मर्यादाओं का कथन किस प्रकार का है ? इसे वे कहां से जान सकते है ? श्री जिनेश्वर भगवान् के धर्म का इस लोक और परलोक मे जो फल है, वह तो गोणफल है, उसका मुख्यफल तो मोक्ष बताया है। किसान खेती करता है या अनाज वोता है---अनाज प्राप्त होने की इच्छा से ; लेकिन घास, पात आदि बीच मे मिल जाते है, वे तो आनुषंगिक फल है। इसी तरह धर्म का यथार्थ फल तो अपवर्ग-मोक्ष है, सांसारिक फल तो आनुषंगिक है। श्री जिनेन्द्रकथित धर्म के आश्रित स्वाख्यानना-' भावना पर बार-बार ध्यान देने से ममत्वरूप विषयविकारों के दोषों से मुक्त बन कर साधक परमप्रकर्ष वाला साम्यपद प्राप्त करता है। इस प्रकार धर्मस्वाख्यातताभावना पूर्ण हुई ।
अब लोकभावना का निरूपण करते हैं
कटिस्थकर वैशाख- स्थानकस्थ - नराकृतिम् ।
द्रव्यैः पूर्ण स्मरेल्लोकं स्थित्युत्पत्ति - व्ययात्मकैः ॥ १०३॥
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अथ - कमर पर दोनों हाथ रख कर और पैरों को फैला कर खड़े हुए मनुष्य की, आकृति के समान आकृति वाले और उत्पाद, व्यय और धांव्य धर्म वाल द्रव्यों से पूर्ण लोक का चिन्तन करे |
व्याख्या - दोनों हाथ कमर पर रखे हों और वंशाख - संस्थान से दोनों पैर फैलाए हुए हों, इन प्रकार खड़े हुए पुरुष की आकृति के समान चौदह राजूप्रमाण लोकाकाश क्ष ेत्र की आकृति का चितन करना चाहिए । लोकाका क्षेत्र कं इसके उत्तर में कहते हैं -- स्थिति, उत्पत्ति और व्ययरूप द्रव्यों से परिपूर्ण क्षेत्र है। स्थिति का अर्थ है- ध्रुवता, स्थायीरूप से टिके रहना कायम रहना । उत्पत्ति का अर्थ है -- उत्पन्न होना और व्यय का अर्थ है नष्ट होना । जगत् के सभी पदार्थ स्थितिउत्पाद-व्ययन्थरूप हैं । श्री उमास्वानि ने नत्वार्थसूत्र में कहा है-- उत्पाद व्यय धीव्ययुक्तं सत् ।' आकाश आदि नित्यानित्य रूप से प्रसिद्ध है । प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण उस-उस पर्याय से उत्पन्न होता है, फिर नष्ट होता है । दीपक आदि के भी उत्पाद और विनाश दोनों योग बनते रहते हैं । परन्तु एकान्त स्थितियोग अथवा एकान्त उत्पाद या विनाशयोग वाला कोई पदार्थ नहीं होता है । हमने 'अन्ययोगव्यवच्छेषद्वात्रिशिका में कहा है — " दीपक में ले कर आकाश तक सभी वस्तुएँ समस्वभाव वाली हैं, वे कोई भी स्यादवाद की मुद्रा का उल्लंघन नहीं करतीं । उसमें से एक वस्तु सर्वथा नित्य ही है और दूसरी वस्तु एकान्त अनित्य है, ऐसा प्रलाप आपकी आज्ञा के विद्वेषी ही करते हैं।"
to लोकस्वरूप भावना का स्वरूप बताते हैं
लोको जगत्-त्रयाकीर्णो, भुवः सप्ताऽत्र वेष्टिताः । घनाम्भोधि-महावात-तनुवार्तर्महाबलैः ॥ १०४॥