Book Title: Yogshastra
Author(s): Padmavijay
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 516
________________ योगशास्त्र : चतुर्ष प्रकाश द्वार है, जिनकी ऊचाई सीलह योजन और चौड़ाई बाठ योजन है। प्रत्येक द्वार पर कलश आदि हैं। बागे मंडप प्रेक्षामंडप, गवाक्ष, मणिपीठ, स्तूप प्रतिमाष्टक चैत्य वृक्ष, ध्वजाबों और बावड़ियों से सुशोभित है। जिनमंदिर के गर्भगृह में ८ योजन ऊंची १६ योजन लम्बी, माठ योजन चौड़ी मणिपठिका है, और इससे अधिक प्रमाण वाला रत्नमय देवच्छंद है, उसमें १-ऋषम, २ वर्धमान ३-चन्द्रानन और ४-वारिषेण नामक जिनेश्वरदेव की पत्यकासनस्थ १०८ शाश्वत प्रतिमाएं हैं। प्रत्येक प्रतिमा के मागे दो दो नागकुमार, यक्ष, भूत, कुंडधर की प्रतिमाएं हैं। दोनों तरफ दो चामर धारण करने वाली और पीछे एक छत्र धारण करने वाली प्रतिमाएं हैं ; तथा घंटा, चंदन घट, भूगार, दर्पण आदि भद्रासन, मंगलपुष्प, अगेरी, पटलक, छत्र, आसन भी साथ में होता है। यहाँ सूत्र में कहे अनुसार दो दो बावड़ियों के अन्तर पर दो दो रतिकर नाम से पर्वत हैं, उस बत्तीस पर्वतों पर पहले कहे अनुसार ३२ जिनमंदिर है । महापर्व के पवित्र दिनो में वदन-नमस्कार करते, स्तुति-पूजा करते, जाते आते विद्याधर तथा देवता उनका महोत्सव करते हैं। ऐसी जिनप्रतिमा उसमें विराजमान हैं। तथा हजार योजन ऊंचा दस हजार योजन लम्बा-चौड़ा, झल्लरी के समान रत्नमय रतिकर नामक पर्वत, दीप की विदिशा मे, गोभित है, उस पर्वत के चारों दिशाओं में जम्बूद्वीप के समान लाख योजन में शक और ईशान इन्द्र की अग्रमहादेवियों की आठ-आठ राजधानियाँ है । उस राजधानियों के चारो तरफ निर्मल मणिरत्न का कोट बना है; उसमें अनुपम अत्यन्त रमणीय और रत्नमय प्रतिमाओ से प्रतिष्ठित जिनमदिर है। इस तरह बीस और बावन गिरिशिखर पर जिनमंदिर हैं, उनकी हम स्तुति करते है, अथवा इन्द्राणियां की राजधानी में रहे बत्तीस अथवा सोलह जिनमंदिरों को मैं नमस्कार करता हूँ।" । नंदीश्वर द्वीप के चारों तरफ वलयाकार-गोलाकार नंदीश्वरसमुद्र है, बाद में अरुणद्वीप बोर अरुणसमुद्र हैं। इसके बाद अरुणावरद्वीप और अरुणावरसमुद्र हैं, बाद मे अरुणाभासदीप और अरुणाभाससमुद्र है, इसके बाद कुडलद्वीप और कुडलसमुद्र हैं, बाद मे रुचकद्वीप और रुचकसमुद्र हैं, इस प्रकार प्रशस्त नाम वाले दुगुने दुगुने विस्तृत असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं आखिर में स्वयभूरमणसमुद्र है । इन द्वीपसमुद्रों में ढाई द्वीप में देवकुरु और उत्तरकुरु को छोड़ कर भरत, ऐरावत और महाविदेह ही कर्मभूमियां हैं। कालोदधि, पुष्करसमुद्र और स्वयंभूरमणसमुद्र के जल का स्वाद जल के जैसा है, लवणसमुद्र के जल का स्वाद लवणरस के समान है, वारुणोदधिसमुद्र का स्वाद विविध प्रकार की मदिरा के समान है, क्षीरसमुद्र के पल का स्वाद बांड और घी आदि के साथ चतुर्थभाग मिश्रित गाय के दूध समान होता है। घृतसमूद्र के जल का स्वाद अच्छी तरह से तपाए हए ताजे घी के समान होता है, और शेष समुद्र का जल स्वाद में दालचीनी, तमालपत्र, इलायची और नागकेसर के साथ ताजे पीर हुए ईक्षुरस के तृतीयांश मिश्रित रस का-सा होता है । लवणसमुद्र, कालोदधि और स्वयंभूरणसमुद्र में बहुत मछली, कछुए आदि होते हैं । परन्तु दूसर समुद्रों में नहीं होते। तथा जम्बूद्वीप में जघन्य चार तीर्थकर, चक्रवर्ती बलदेव और वासुदेव हमेशा होते हैं ; उत्कृष्ट चौतीस तीर्थकर और तीस चक्रवर्ती होते हैं। घातकीपण्ड और पुष्कराधखण्ड में इससे दुगुने होते हैं । तिर्यक्लोक से ऊपर नौसी योजन सात राजू-प्रमाण ऊध्वंलोक है, उसमें सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक महाशुक्र, सहस्रार, मानत, प्राणत, आरण और अच्युत नाम के बारह देवलोक है। उनके अपर नौ प्रवेयक, उनके ऊपर विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित पूर्वादि

Loading...

Page Navigation
1 ... 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635