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योगशास्त्र : चतुर्थ प्रकाश
तब ऐसा विचार करने पर क्षमाभाव आता है । पूर्वकृतकर्मों का फल इस प्रकार से होता है। कर्म का फल भोगे बिना या तप किये बिना निकाचितकमों का क्षय नहीं होता । अवश्य भोगने योग्य कर्मफल में दूसरा तो निमित्तमात्र होता है। कहा है-सभी जीव अपने-अपने पूर्वकृतकर्मों का फल प्राप्त करते हैं, अपराध करने में या उपकार (गुण) करने में दूसरा तो सिर्फ निमित्तमात्र ही होता है । इस तरह स्वयंकृत कर्म के उदयकाल में विचार करना चाहिये । क्षमा के गुणधर्म का विचार करने से क्षमागुण प्रगट होता है । क्षमा धारण करने से अनायास ही क्रोध का निमित्त मिलने पर भी क्रोध नहीं होता, शुभध्यान का अध्यवमाय रहता है परमसमाधि उत्पन्न होती है, अन्तरात्मा में स्थायी प्रसन्नता होती है, किसी को मारने के लिए शस्त्र ढूंढने का प्रयत्न नहीं होता, आवेश नही आता, चेहरे पर प्रसन्नता झलकती है, क्रोध से आँखें लाल नहीं होती, परन्तु चेहरा उज्ज्वग्न रहता है, पसीना नहीं होता, कंपन नहीं होता तथा दूसरों को मारने की भावना नहीं होती। ये और इम प्रकार के गुण क्षमा रखने से प्राप्त होते हैं । क्षमाधर्म क्रोध का प्रतिपक्षी है ।
(८) माबंद का अर्थ है- मृदुता - कोमलता-नम्रता - अभिमानरहितता । मार्दव अहंकार का निग्रह करने से होता है । अहंकार जातिमद आदि के रूप में ८ प्रकार का होता है, जिसकी चर्चा हम पहले कर आए । इसलिए जाति, कुल, बल, रूप, लाभ, तप, बल्लभता, (या ऐश्वयं) और बुद्धि (या श्रुत) के मद में अन्धा बना हुआ - पुरुषार्थहीन पुरुष इहलोक और परलोक के लिए हितकर बात को भी देख नहीं पाता ; इत्यादि मददोष परिहार का कारणभूत मान का प्रतिपक्षी मार्दवधर्म है ।
(E) सरलता - का अर्थ है - ऋजुता, मन-वचन काया की एकरूपता या तद्रूप सरलताअवक्रता, कुटिलता-रहित व्यवहार मायारहित जीवन । मायावी अपने वचन के अनुसार कार्य नहीं करता । इसलिए हरएक के लिए वह शंका का स्थान बना रहता है, अविश्वासपात्र होता है। कहा भी है- मायावी पुरुष यद्यपि अपराध नहीं करता, तथापि वह अपने मायावी स्वभाव के दोष के कारण सर्व के समान प्रत्येक के लिए अविश्वसनीय होता है । इस प्रकार माया का प्रतिपक्षी सरलताधर्म ।
(१०) मुक्ति - निलभता - अर्थात् बाह्य तथा आभ्यन्तर विषयक तृष्णा का विच्छेद होना । लोभ और आशा-अपेक्षा का अभाव होना । लोभाविष्ट पुरुष क्रोध, मान, माया, हिंसा, असत्य, चोरी अब्रह्म, परिग्रहरूप दोषसमूह से पुष्ट होता है । कहा भी है- सर्वनाश का आश्रयस्थान और समस्त दुःखों का एकमात्र राजमार्ग लोभ है। लोभ के चंगुल में फंसा हुआ लोभी व्यक्ति क्षण-क्षण में नये नये दुःख पाता रहता है । इसलिए लोभ का त्यागरूप निर्लोभता है । स्वपरहित, आत्मप्रवृत्ति, ममत्व का अभाव, निःसंगता, परद्रोह न करना, रजोहरण आदि संयमपालन के उपकरणों पर भी मूर्च्छारहित रहना इत्यादि लक्षण बाला मुक्तिधर्म है ।
इस प्रकार धर्म के दस भेद हैं। यहाँ शंका होती है कि सत्य, संयम, शौच, ब्रह्म, अकिंचनता आदि का समावेश तो महाव्रतों में हो जाता है और क्षमा, मार्दव, आर्जव, और मुक्ति इनका समावेश संवरप्रकरण में हो जाता है ; तप को संवर और निर्जरा का कारणरूप बताया ही है, तब फिर धर्मप्रतिपादन के प्रसंग में पुनः इन दस धर्मों को कहने का क्या प्रयोजन है ? इससे तो पुनरुक्तिदोष हुआ !" इसका समाधान करते हैं कि यद्यपि यहाँ संयम आदि का फिर से कहने का कोई प्रसंग नहीं था; परन्तु संयम आदि दस प्रकार के धर्म का प्रकारान्तर से प्रतिपादन इसलिए किया गया है कि यह श्री अरिहन भगवान् द्वारा स्वाख्यात (अच्छी तरह से कहा हुआ) धर्म है। इसलिए कहना आवश्यक था। धर्मगुण के