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योगशास्त्र : चतुर्थ प्रकाश
कोटीश्वरो नरेन्द्रत्वं, नरेन्द्रश्चत्तिताम् । चक्रवर्ती च देवत्वं, देवोऽपीन्द्रत्वमिच्छति ॥२०॥ इन्द्रत्वेऽपि हि सम्प्राप्ते, यदीच्छा न निवर्तते ।
मूले लघीयांस्तल्लोभः सराव इव वर्धते । २१॥ अर्थ-निर्धन मनुष्य सौ रुपये की अभिलाषा करता है, सौ गने वाला हजार को इच्छा करता है, और हजार रुपयों का स्वामी लाख रुपये पाना चाहता है, लक्षाधिपति करोड़ की लालसा करता है, और कोटीपति राजा बनने का स्वप्न देखता है राजा को चक्रवर्ती बनने की धुन सवार होती है और चक्रवर्ती को देव बनने की लालसा जागती है। देव भी इन्द्रपद प्राप्त करना चाहता है। मगर इन्द्रपद प्राप्त हाने पर भो तो इच्छा का अन्त नहीं आता है । अतः प्रारम्भ में थोड़ा-सा (छोटा-सा) लोभ होता है, वही बाद में शैतान की तरह बढ़ता जाता है।
व्याख्या-लोभ के मम्बन्ध में प्रस्तुत आन्तरश्लोको का माया कहते हैं-' जैसे सभी पापों में हिंसा वडा पाप है, सभी कर्मों में मिध्यात्व महान है और मनन गंगा म क्षयरोग महान है, वैसे ही सब अबगुणों में लोभ महान अवगुण है । अहा ! इस भूनइन पनाम का कच्छय साम्राज्य है । लोभ के कारण ही एकेन्द्रिय पेडपौधे भी निधान मिलने पर उसे अपनी जद मया कर, पकड़ कर ढक रखते हैं। धन के लोभ से द्वीन्द्रिय. त्रीन्द्रिय और चतुरीन्द्रिय जीव भी बने गहुए निधान पर मूछ पूर्वक जगह बना कर रहते हैं। सर्प, गोह, नेवल, चहै आदि पचन्द्रिय जीव भी धन के लोभ स जगह पर आसक्तिवश बैठे रहते हैं । पिगाच, मृद्गल, भूत, प्रेत, यक आदि अपने या दूसरे के धन पर लोभ व मूविश निवास करते है । आभुपण, उद्यान, वावड़ी आदि पर मूळग्रस्त हो कर देवता भी च्यव कर पृथ्वीकायादि योनि में उत्पन्न होता है। साधू उपशानिमोह-गुणस्थान तक पहुंच कर क्रोधादि पर विजय प्राप्त कर लेने पर भी एकमात्र अल्पलोम के दोप के कारण नीचे क गुणस्थानों में आ गिरता है । मांस के टुकड़े के लिए जमे कुत्ते आपम लड़ते हैं, वम ही एक माना के उदर में जन्मे हुए सगे भाई भी थोड़े-से धन के लिए परस्पर लड़ते हैं। लोभाविष्ट मनुल गाँव, पर्वत एव वन की सीमा पर अधिकार जमाने के लिए सहृदयता को निलाजलि दे कर ग्रामनामी गज्याधिकारी, देशवासी और शासको में परस्पर फूट डाल कर विरोध पैदा करके उन्हें एक दूसरे का दुश्मन बना देता है । अपने मे हास्य, शाक, दंप या राग की अतिमात्रा न होने पर भी मनुष्य लोभ के कारण मालिक के आगे नट की तरह नाचना है, उसका प्रेमभाजन बनने का नाटक करता है। लोभरूगी गडटे को भरने का ज्यों-ज्यों प्रयत्न किया जाना है, त्यो-त्यों वह अधिकाधिक गहरा होता (बढ़ना) जाता है। आश्चर्य है, समुद्र तो कदाचित् जल से पूरा भर सकता है, परन्तु तीनों लोकों का गज्य मिलने पर भी लोभ-समुद्र नहीं भरता। मनुष्य ने अनन्तवार भोजन, वस्त्र, विपय एव द्रव्यपुज का उपभोग किया है, भगर तब भी उन पर मन में लोभ का अश कम नहीं होता। यदि लोभ छोड़ दिया है तो तप से क्या प्रयोजन और अगर लोभ नहीं छोड़ा है, तो भी निष्फल तप से क्या प्रयोजन ? समस्त शास्त्रों के परमार्थ का मन्थन कर मैं इस निर्णय पर पहुंचा है कि महामतिमान साधक को सिर्फ एकमात्र लोभ को नष्ट करने का पुरुषार्थ करना चाहिए।"
अब लोविजय का उपाय बताते हैं