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योगमास्त्र : चतुर्ष प्रकाश भावार्ष--बन्धकार मांख के प्रकाश को ढक देता है। इसी प्रकार रागादि भी बात्मा के सम्यग्ज्ञान-सम्यग्दर्शरूपी प्रकाश को ढक देते हैं। इस कारण जब साधक के ज्ञान और दर्शन (तत्त्व प्रमा) नष्ट हो जाते हैं तो दर्शनशानभ्रष्ट मन उसे अपने वश में करके नरक के कुए में गिरा देता है । जैसे एक अन्धा दूसरे अन्ध को कुए में गिरा देता है, वैसे ही रागादि से अन्धा मानस, मानसिक अन्ध मनुष्य को भी नरक के कुए में गिरा देता है । मतलब यह है कि मन से अन्धा हो कर मनुष्य नरक के कुंए में गिरता है।
इसी विषय में लिखित कुछ बान्तररालोकों का भावार्थ यहाँ प्रस्तुत करते है
द्रव्यादि चार पर रति, प्रीति, मोह या बासक्ति को राग कहते हैं और उन्हीं पर अरति, अरुचि, घृणा या ईर्ष्या को देष कहते हैं । राग और द्वेष, ये दोनों सभी जीवों के लिए महाबन्धन हैं। इन्हें ही समस्तदुःखरूपी वृक्ष के मूल और स्कन्ध कहा है। यदि जगत् में राग और द्वेष ये दोनों न होते तो सुख को देख कर कोन विस्मित और हर्षित होता? दुःख से कौन दीन-हीन बनता ? और कौन मोक्ष नहीं प्राप्त कर लेता? सब ही प्राप्त कर लेते। राग के बिना अकेलाष नहीं होता और द्वेष के बिना अकेला राग नहीं होता। दोनों में से किसी एक को छोड़ देने पर दोनों ही छूट जाते हैं। काम आदि दोष राग के सेवक हैं और मिथ्याभिमान आदि देष के परिवार के हैं। राग और द्वेष का पिता, नायक, बीज और परमस्वामी, इन दोनों से अभिन्न और दोनों से रक्षित-पालित, समस्त दोषों का पितामह मोह है। इस प्रकार ये तीनों दोष मुख्य हैं । इनके सिवाय ऐसा कोई दोष नहीं है, जिसका समावेश इनमें न हो सके । ये ही तीन जगत के समस्त जीवों को संसाररूपी अरण्य में परिभ्रमण कराते हैं । जीव (आत्मा) स्वभावतः स्फटिकरत्न क समान सर्वथा निर्मल है, परन्तु इन रागादि उपाधियों के कारण वह रागादिस्वरूप कहलाता है। अफसोस ! ये रागादि चोर देखते ही देखते जीव की आत्मिक सम्पत्ति का हरण कर लेते हैं । इनके कारण विश्व अराजक बना हुमा है ; अथवा अपने स्वरूप में स्थित जीव का अपने सामने ही इन रागादि लुटेरों से सर्व ज्ञान लट जाता है। निगोद में जितने जीव हैं और जो जीव कुछ ही समय में मुक्ति में जाने वाले हैं, वे सभी इन निष्करुण मोहादि सेना के अधीन हो जाते हैं । अरे ! रागादि-दोषो ! क्या तुम्हें मुक्ति के साथ या मुमुक्ष के साथ वर है कि इन दोनों के योग (रत्नत्रयमय) को रोकते हो?' तुम्हें (रागादि दोषों को) क्षय करने में समर्थ तो अरिहन्त ही हैं। उनके समान और कोई समर्थ नहीं है । उन्होंने जगत् को जला देने वाली दोषाग्नि शान्त कर दी है । जिस प्रकार व्याघ्र, सर्प, जल और अग्नि पास में हों तो मुनि डरते नहीं हैं, इसी प्रकार दोनों लोकों में, इस जन्म और आगामी जन्मों में अपकारकर्ता गगादि से भी मुनि नहीं डरते । वास्तव में उनके पास रागरूपी सिंह और द्वेषरूपी बाप बैठे रहते हैं, क्योंकि उन योगियों ने मार्ग ही महासंकट का चुना है। अब रागढेष पर विजय पाने का उपाय बताते हैं
अस्ततन्द्र रतः पुम्मिनिर्वाणपदकांक्षिभिः ।
विधातव्यः समत्वेन रागढषद्विषज्जयः ॥४९॥ अर्थ-अतः निर्वाणपद पाने के अभिलाषी योगी पुरुषों को तन्द्रा (प्रमाव) छोड़ कर सावधानी के साथ समत्त्व के द्वारा रागढवरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना चाहिए।
रागद्वेष को जीतने के लिए समता का उपाय कैसा है ? इसे बताते हैं