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योगशास्त्र : चतुर्थ प्रकाश इस प्रकार चारों गतियों में स्थित संसारी प्राणियों को इस संसार में जरा भी सुख नहीं है; इतना ही नहीं, सिर्फ शारीरिक और मानसिक दुःख भी बहुत अधिक है। ऐसा समझ कर यदि तुम भवभ्रमण के भय से सदा के लिए मुक्त होना चाहते हो तो ममता को दूर कर सतत शुद्धाशयपूर्वक संसारभावना का ध्यान करो । इस प्रकार संसारभावना पूर्ण हुई। अब दो श्लोकों द्वारा एकत्वभावना का प्रतिपादन करते हैं
एक उत्पद्यते जन्तुरेक एव विपद्यते ।
कर्माण्यनुभवत्येकःप्रचितानि भवान्तरे।।६।। अर्थ- यह जीव अकेला असहाय ही उत्पन्न होता है और अकेला ही शरीर छोड़ कर मर जाता है, तथा जन्म-जन्मान्तर में सचित्त कर्मों को भी यह अकेला ही भोगता है।
श्री भगवान ने कहा है-परलोक में किये हुए कर्म इस लोक में भोगने पड़ते हैं ; वैसे ही इस लोक में किये हुए कर्म इस लोक में भी भोगे जाते हैं।
अन्यस्तेनाजितं वित्तं, भूयः सम्भूय भज्यते।
स त्वेको नरककोड़े, क्लिश्यते निजकर्मभिः। ६९॥ अर्थ-उसके द्वारा महारम्भ और महापरिग्रह आदि उपायों से अजित धन का उपभोग दूसरे बन्धु-बान्धव, कुटुम्ब परिवार, नौकर आदि मिल कर करते हैं। परन्तु वह धन का उपार्जन करने वाला तो अकेला ही अपने दुष्कर्मो से नरक को गोद में जा कर महादुःख भोगता है।
व्याख्या-इसके सम्बन्ध में उक्त आन्तरपलोकों का भावार्थ प्रस्तुत करते हैं-'दुःखरूपी दावानल से भयंकर विशालसंसाररूपी अरण्य में कर्माधीन हो कर यह आत्मा अकेला ही परिभ्रमण करता है। बन्धु, बान्धव, स्वजन आदि कोई भी जीव के सहायक या हिस्सेदार नहीं होते। प्रश्न होता हैसुख-दुःख का अनुभव करने वाली यह काया तो सहायक होगी न ? इसके उत्तर में कहते है-"नहीं ; यह काया पूर्वभव से ही साथ नही आई और न जन्मान्तर मे साथ जायेगी; फिर यह कैसे सहायक हो सकती है ? तुम्हारी यह मान्यता भी यथार्थ नहीं है कि जीव के धर्म और अधर्म ये दो ही सहायक हैं। क्योंकि मोक्ष में धर्म या अधर्म की सहायता नहीं है। इसलिए शुभाशुभकर्म करता हुआ जीद अकेला ही संसार में परिभ्रमण करता है ; और उन कर्मों के अनुरूप शुभाशुभ फल भोगता है तथा अनुत्तर मोक्षलक्ष्मी को भी अकेला ही प्राप्त करता है । वहाँ किसी भी प्रकार के सम्बन्धी का सम्बन्ध नहीं होता और न काम आता है । अत: संसार में होने वाले दुखों को तथा मोक्ष में होने वाले सुखों को वह अवेला ही भोगता है, उसमें किसी की सहायता या हिस्सेदारी नहीं होती । तैराक अकेला हो तो भी वह बड़े से बड़े ममुद्र को शीघ्र पार कर सकता है, परन्तु छाती, हाथ, पैर आदि इकट्ठे बांध ले या अन्य कोई परिग्रह साथ में रखे तो वह पार नहीं हो सकता । इसलिए धन, शरीर आदि से (ममत्व से) विमुख हो कर ही एकाकी स्वस्थ मात्मा संसारसमुद्र से पार हो सकता है । पाप करने से जीव अकेला ही नरक में जाता है, इसी प्रकार पुण्य करने से भी अकेला स्वर्ग में जाता है और पाप-पुण्य दोनों का क्षय करके अकेला ही मोक्ष में जाता है। ऐसा समझ कर निर्ममत्वप्राप्ति के लिए दीर्घकाल तक एकस्वभावना का ध्यान करना चाहिए । इति एकत्वभावना ।