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देवगति के दुःखों का वर्णन
४६५ में दुःखी होता रहता है कि मैंने पूर्वजन्म में कोई सुकृत नहीं किया, जिससे यहां में दूसरों का बाज्ञापालक सेवक देव बना हूं। दूसरों की अधिकाधिक समृद्धि देख कर देवता को विषाद होता है। दूसरे देवों के उत्कृष्ट विमान, भवन, उपवन, रत्न और सम्पदाएं देख कर सारी जिंदगीभर देव ईर्ष्या की बाग में जलता रहता है । दूसरे से लुट गया हो, सारी समृद्धि खो दी हो, तब दीनवृत्ति धारण करके हे प्राणेश ! हे प्रभो । हे देव ! मुझ पर प्रसन्न हों ; इस प्रकार गद्गद स्वर से पुकारता है । कान्दपिक आदि देवों को पुण्ययोग से भले ही स्वर्ग प्राप्त हुआ हो, लेकिन वहां भी वे काम, क्रोध और भय से पीड़ित रहते हैं, वे अपना असली स्थान नहीं पाते । देवलोक से च्युत होने का चिह्न देख कर देव विलाप करता है कि पता नहीं, अब यहां से च्युत होने के बाद किसके गर्भ में स्थान मिलेगा? इस तरह कल्पवृक्ष की कभी न मुर्भाने वाली पुष्पमाला के मुर्माने के साथ ही देवों का मुखकमल मुझ जाता है। हृदय के साथ-साथ सारा शरीर का ढांचा शिथिल हो जाता है और महाबली से भी कम्पित न होने वाला कल्पवृक्ष भी कांपने लगता है। स्वीकृत प्रिया के साथ मानो अकाल में शोभा और लज्जा ने साथ-साथ अपराध किया हो, इस तरह देवी देव को अपराधी जान कर छोड़ कर चली जाती है। वस्त्रों की निर्मल शोभा भी क्षणभर में फीकी पड़ जाती है । आकाश में अकस्मात् मेघाडम्बर होने से जैसे बह श्याम हो जाता है, वैसे देव का चेहरा पाप से श्याह और निस्तेज हो जाता है। जो अब तक दीनतारहित थे, वे दोन बन जाते हैं, निद्राहीन थे, वे निद्रित हो गए । मौत के समय जैसे चींटियों के पंख आ जाते हैं, वैसे ही च्यवन के समय देवों को भी दीनता और निद्रा आ कर घेर लेती है; न्यायधर्म का अतिक्रमण करके विष अत्यधिक आसक्त हो जाता है और यत्नपूर्वक मरने की इच्छा से कुपथ्य-सेवन भी करना चाहता है। भविष्य में दुर्गति होगी, यह जान कर उसकी वेदना से विवश होने से निरोग होने पर भी उसके सभी अंग-प्रत्यंगों के जोड़ टूटने लगते हैं । पदार्थ को झटपट समझने में पटु बुद्धि भी सहसा चली जाती है। अब तो बह दसरे के वैभव का उत्कर्ष देखने में भी असमर्थ हो जाता है। निकट भविष्य में ही गर्भवास का दःख आ पड़ने वाला है, इस भय से वह सिहर उठता है, अपने अंगों को कंपा कर इसरों को डराता है। अपने व्यवन के निश्चित आसार जान कर विमान, नन्दनवन या बावड़ी आदि में किसी में भी रुचि नहीं रखता। वे उस आग के आलिंगन के समान लगने लगते हैं। वह रातदिन यही विलाप करता रहता है-अरी प्रिये !, हाय! मेरे विमान !, अरे ! मेरी बावड़ो!, ओह ! कल्पवृक्ष!, मेरा देवत्व समाप्त होने के बाद फिर कब मैं तुम्हें देखूगा?, अहा! अमृतरस के समान तुम्हारा हास्य !, मोह ! अमृततुल्य लाललाल होठ !, अहो ! अमृतमम मरने वालो वाणी!, हा ! अमृतवल्लभा !, हाय ! रत्नजटित स्तम्भ !, हाय ! मणिमय स्पर्श, ओफ ! रत्नमयवेदिका I, अब तुम किसका आश्रय लोगे ? हाय ! रत्नमय सोपानों वाली कमलों और उत्पलों से सुशोभित यह बावड़ी किसके काम आएगी ? हे पारिजात! हे मन्दार ! हे संतान ! हे हरिचन्दन ! कल्पवृक्ष ! क्या तुम सब मुझे छोड़ दोगे? अरे रे । क्या मुझे अब स्त्री के गर्भवासरूप नरक में पराधीनता में वास करना होगा?, हाय ! वहाँ भी क्या बार-बार अशुचिरस का आस्वादन करना पड़ेगा ? क्या मुझे अपने किए कर्मों के अनुसार जठराग्नि के चूल्हे में अपने को सेकने का दुःख उठाना पड़ेगा? कहाँ ये रतिनिधान-सी देवांगनाएं और कहाँ वे अशुचि झरती हुई बीमत्स मानुषी स्त्री ?' इस प्रकार यह देव देवलोक की वस्तुओं को याद कर-करके सूरता रहता है और यों विलाप करते-करते ही अचानक क्षणभर में उसका जीवनदीप बुझ जाता है।
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