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योगशास्त्र : चतुर्य प्रकार प्रकार से पकता है, एक तो उपाय से, दूसरे स्वतः ही पेड़ पर; वैसे ही जिसमें कर्मों को तप आदि उपायों से शीघ्र भोग कर क्षय किया जाता है, वह सकामनिर्जरा है, और जिसमें समय पर कर्म स्वतः उदय में आ कर अनिच्छा से जबरन भोगे जाते हैं, तब अय होते हैं, वह अकाम निर्जरा है।
व्याख्या-'मेरे कर्मों की निर्जरा हो, इस अभिप्राय से जो सयमीपुरुष कर्मक्षय करने के लिए तपस्या करते हैं, उन्हें उस तपस्या से इहलौकिक या पारलौकिक सुख की इच्छा नहीं होती; वही अकामनिर्जरा है। संयमी के अतिरिक्त एकेन्द्रिय आदि जीवों की कर्मक्षयरूप फल से निरपेक्ष जो निर्जरा है, वह अकामनिर्जरा है। वह इस प्रकार होती है-पृथ्वीकाय से वनस्पतिकाय तक एकेन्द्रिय जीव शर्दी, गर्मी, वर्षा, जल, अग्नि, शस्त्र आदि के घाव, छेदन-भेदन आदि के कारण असातावेदनीय कर्म का अनुभव करते हैं, इससे नीरसकर्म अपने आत्मप्रदेश से अलग हो जाते हैं । विकलेन्द्रिय जीव भूख, प्यास, ठंड, गर्मी, आदि के रूप में तथा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च छेदन-भेदन, अग्नि, शस्त्र आदि के रूप में असातावेदनीय (दुःख) कर्म भोगते हैं। नरक में तीन प्रकार की भयंकर वेदना होती है-भूख, प्यास, व्याधि, दरिद्रता आदि दुःखो के रूप में वहाँ असातावेदनीय कर्म भोगते हैं। यही हाल असयमी मनुष्यों का है। मतलब यह कि असंयमी जीव बिना इच्छा के आ पड़े हुए दुःखों को लाचारी सेपरवश हो कर भोगते हैं और इस प्रकार कर्मों का आत्मप्रदेश से पृथक् हो जाना अकामनिर्जरा है। यहाँ शंका होती है कि सकाम और अकामनिर्जरा के दोनों भेदों का पृथक स्वरूप तो कोई नही दिखाई देता? इसके समाधान के लिए दृष्टान्त देते हैं- असातावेदनीय कर्म का फलभोग दो प्रकार से होता हैअपने आप और उपाय से। जैसे वृक्ष के फल एक तो पेड़ पर स्वतः पक कर नीचे गिर जाते हैं, दूसरे उपाय से पकाये जाते हैं। आम आदि फलों को निर्वातस्थान में घास से ढक कर पकाया जाता है, या फिर वे काल (समय) आने पर स्वतः पेड़ पर ही पक जाते हैं। जिस प्रकार फलों का पकाना दो तरह में होता है, उसी प्रकार कर्मों की निर्जरा भी दो तरह से होती है ; एक तो तपस्या मादि उपाय से शीघ्र निर्जरा हो जाती है, वह सकामनिर्जरा है, और कर्मोदय से कर्म निरुपाय हो कर भोगे जांय, वहां अकामनिर्जरा है। इस कारण निर्जरा के दो भेद कहे हैं। फिर शंका उठाई जाती है कि फल दो प्रकार में पकता है, इससे कर्मनिर्जरा का क्या वास्ता ?' बेशक सम्बन्ध है, फल पकने के प्रकारों की तरह, अमंनिर्जरा भी दो प्रकार से होती है। यहां पकना निर्जरारूप है। निर्जरा में कर्मफल का पकना होता है। अब राकामनिर्जरा के हेतु दृष्टान्त द्वारा स्पष्टतः समझाते हैं
सदोषमपि दीप्तेन, सुवर्ण वह्निना यथा।
तपोऽग्निना तप्यमानस्तथा जीवो विशुद्ध यति ॥८॥ अर्थ-जैसे सदोष (मलसहित) सोना प्रदीप्त आग में तपाने पर शुद्ध हो जाता है, वैसे अशुभकर्मरूप दोष से युक्त जीव भी तपरूपी अग्नि में तपने पर विशुद्ध हो जाता है।
व्याख्या-जिससे रस आदि धातु एवं कर्म तपें, उसे तप कहते हैं। कहा भी है-'जिससे रस, रुधिर, मांस, चर्बी, हड्डी, मज्जा और शुक्र आदि धातुएं एवं अशुभकर्म तप कर भस्म हो जाय, उसे निरुक्ति (व्युत्पत्ति) के अनुसार तप कहते हैं । वही निर्जरा का हेतु है।' कहा है कि 'यदि पुष्ट होते हुए