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निराभावना का स्वरूप
कर चिपक भी सकती है । अथवा मान लो, एक तालाब है, उसमें पानी आने के सभी रास्ते बोल दिये जाय तो पानी उसमें तेजी से घुस जाता है, और अगर पानी आने के द्वार बन्द कर दिये जाय तो जरा भी पानी उसमें नहीं बा सकता । जैसे नौका में छिद्र हो जाए तो उसमें पानी भर जाता है, किन्तु छिद्र बंद कर दिया जाए तो उसमें जरा भी पानी प्रवेश नहीं कर सकता ; वैसे ही आस्रवताररूप त्रियोगों को चारों तरफ से रोक दिया जाए तो संवरस्वरूप आत्मा में कर्मद्रव्य का प्रवेश नहीं हो सकता । मतलब यह है कि संवर करने से मानवद्वार का निरोध होता है। और क्षमा आदि भेद से संवर अनेक प्रकार का है। जिस जिसका संवर किया हो, उसे उस संवर के नाम से प्रतिपादन किया जाता है । फिर जिस गुणस्थानक में जो-जो संवर होता है, उसे उसी संवर के नाम से पुकारा जाता है । जैसे मिथ्यात्व का अनुदय हो तो उस गूणस्थानक में मिथ्यात्वसंवर कहलाता है। तथा देशविरति आदि में, अविरति का संवर और अप्रमत्तसंयतादि में प्रमादसंवर माना नया है। प्रशान्त और क्षीणमोहादिक गुणस्थान में कषाय. संवर होता है; अयोगिकेवलिगुणस्थान में संपूर्ण योग का संवर होता है। इस तरह आस्रवनिरोध के कारणरूप संवर का विस्तृत वर्णन किया। अतः भावनागण-समुदाय में शिरोमणि संवरभावना का भव्यजीव चिन्तन करे । इति संवरभावना।' अब निर्जराभावना कहते हैं
संसारबोजभूतानां, कर्मणां जरणाविह।
निर्जरा सा स्मृता द्वेधा, सकामाकामवजिता ॥८६॥ अर्थ संसार-भ्रमण के बीजभूत कर्मों का आत्मप्रदेश से सड़ जाना या पृषक हो जाना निर्जरा है । वह दो प्रकार की है.-सकामनिर्जरा और अकामनिर्जरा।
व्याख्या-चार गति में भ्रमणस्वरूप संसार के कारणभूत कर्मों का आत्मप्रदेश से रसानुभवपूर्व कर्मपुद्गलों के खिर जाने, अलग हो जाने को शास्त्रों में निर्जरा कहते हैं। वह निर्जरा दो प्रकार की है-'मेरे कर्मों की निर्जरा हो' ऐसी इच्छापूर्वक या विशुद्ध उद्देश्यपूर्वक तप आदि करना; सकामनिर्जरा है। इस लोक और परलोक के फल की इच्छा करना निर्जरा नहीं है, क्योंकि साधक के लिए ऐसी इच्छा करना निषिद्ध है। कहा भी है कि 'इस लोक के सुख की अभिलाषा से तपस्या नहीं करनी चाहिए, परलोक में ईष्टसुखप्राप्ति के लिए भी तप नहीं करना चाहिए; कीर्ति, प्रशंसा, एवं वाहवाही आदि के लिए भी तपश्चर्या नहीं करनी चाहिए ; निर्जरा (आत्मशुद्धि) के लाभ के सिवाय अन्य प्रयोजन से तप नहीं करना चाहिए।" यह है सकामनिर्जरा का स्वरूप । इसके विपरीत अकामनिर्जरा है, जो पूर्वोक्त अभिलाषा से रहित है। वह इस अभिलाषा से रहित है कि मेरे पापकर्मों का नाश हो।' पुनः दोनों प्रकार की निर्जरा की व्याख्या करते हैं
जेया सकामा यमिनाम्, अकामा त्वन्यदेहिनाम् ।
कर्मणां फलवत्पाको यदुपायात् स्वतोऽपि हि ॥७॥ अर्थ-संयमीपुरुषों को निर्जरा सकाम समालनी चाहिए और उनसे अतिरिक्त जितने भी एकेनिय से ले कर पंचेन्द्रिय तक के जीव हैं, उनकी निर्जरा काम है। जैसे फल दो