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योगशास्त्र : चतुर्थ प्रकाश
करते हैं-राजा लोग कूटनीति, षड्यंत्र, जासूसी और गुप्त प्रयोगों द्वारा कपटपूर्वक विश्ास्त व्यक्ति का घात करके धन के लोभ से दूसरों को ठगते हैं। ब्राह्मण मस्तक पर तिलक लगा कर, हाय आदि की विविध मुद्राओं का प्रदर्शन करके, मंत्र जप कर तथा दूसरों की कमजोरी का लाभ उठा कर हृदयशून्य हो कर बाह्य दिखावा करके लोगों को ठग लेते हैं। वणिजन नापतौल के झूठ बांट बना कर कपटक्रिया करके भोलेभाले लोगों को ठगते हैं। कई लोग सिर पर जटा धारण कर, मस्तक मुंडा कर या लम्बी लम्बी शिखा-चोटी रखवा कर, भरम रमा कर, भगवे वस्त्र पहन कर या नंगे रह कर; हृदय मे परमात्मा और धर्म के प्रति नास्तिकता और ऊपर से पाखंड रच कर भद्र श्रद्धालु यजमानों को ठग लेते हैं । स्नेहहित वेश्याएँ अपना हावभाव, विलास, मस्तानी चाल दिखा कर अथवा कटाक्ष फैक कर या अन्य कई तरह के नृत्य, गीत आदि विलासों से कामी पुरुषों को क्षणभर में आकर्षित करके ठग लेती हैं । जुआरी झूठी सौगन्धे खा कर, झूठे कौड़ी और पासे बना कर धनवानों से रुपये ऐंठ लेते हैं ; दम्पती, माता-पिता सगे भाई, मित्र, स्वजन, सेठ, नौकर तथा अन्य लोग परस्पर एक दूसरे को ठगने में नहीं चूकते । धनलोलुप पुरुष निर्लज्ज हो कर खुशामद करने वाले चोर से तो हमेशा सावधान रहता है, किन्तु प्रमादी को ठग लेता है। कारीगर और चांडाल अपने पुरखों से प्रचलित व्यापार-धन्धे में अपनी आजीविका चलाते है, मगर छल से शपथ खा कर अच्छे-अच्छे सज्जनों को ठग लेते हैं। क्रूर व्यन्तरदेव आदि कुयोनि (नीचजाति) के भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस आदि मनुष्यों और पशुओं को प्रमादी जान कर प्राय: अनेक प्रकार से हैरान करते हैं । मछली आदि जलचर जन्तु प्रपंचपूर्वक अपने ही बच्चों को निगल जाते हैं, किन्तु मछुए उन्हें भी कपटपूर्वक जाल आदि विछा कर पकड़ लेते हैं । ठगने में चतुर शिकारी विभिन्न उपायों से मूर्ख स्थलचर जीवों को अपने जाल में फंसा लेते हैं, बांध लेते हैं, और फिर मार डालते हैं। हिंसक बहेलिए थोड़े से मांस खाने के लोभ में बेचारे चिड़िया, तोता, मैना, तीतर, बटेर आदि आकाशपारी पक्षियों को अतिकर बन कर निर्दयता से बांध लेते हैं । इस प्रकार सारे संसार में आत्मवंचक लोग एक दूसरे को ठगने में रत हो कर अपने धर्म और सद्गति का नाश कर बैठते हैं । अतः बुद्धिमान व्यक्ति को तिर्यञ्चजाति में उत्पत्ति की बीजरूप, अपवर्गनगरी की अर्गला के समान, विश्वासवृक्ष के लिए दावाग्नितुल्य माया का त्याग कर देना चाहिए। पूर्वभान में श्रीमल्लिनाथ अर्हन्त के जीव ने अपमाया की थी, उस मायाशल्य को दूर न करने के कारण अर्थात् आलोचना और प्रायश्चित्त द्वारा आत्मशुद्धि न करने के कारण उन्हें माया के योग से जगत्पति तीर्थकर के रूप में स्त्रीत्व मिला था। अब माया को जीतने के लिए उसकी प्रतिपक्षी सरलता की प्रेरणा करते हैं
तदार्जवमहौषध्या जगदानन्दहे. ना।
जयेज्जगद्बोहकरी मायां विषधरीमिव ॥१७॥ अर्थ-इसलिए जगत् का अपकार-द्रोह करने वाली मायारूपी सपिणी को जगत् के जीवों को आनन्द देने वाली ऋजुता=सरलतारूपी महौषधि से जीतना चाहिए।
व्याख्या-जगत् के लोगों के लिए आरोग्यदायिनी प्रीतिविशेष ऋजुता (माजव) है, जो कपट भाव के त्यागपूर्वक मायाकषाय पर विजय प्राप्त करा कर मुक्ति का कारण बनती है । इस विषय में बान्तरश्लोकों का भावार्थ प्रस्तुत करते हैं-"बन्यधर्मीय शास्त्रों में भी सिद्धान्तरूप में बताया है कि मुक्तिनगरी का अगर कोई सीधा रास्ता है तो वह सरलता का है। शेष जो मार्ग है, वह तो बाचार का ही विस्तार है। थोड़े में यह समझ लो कि कपट सर्वथा मृत्यु का कारण है, जबकि सरलता अजर-अमर होने का