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योगशास्त्र : चतुर्थ प्रकाश
में इन्द्रियाँ बिना मारी हई रहती हैं और प्रमाद आदि अहितकर योगों में मारी हई रहती है। अर्थातयमनियमों के पालन में इन्द्रियों को मारे (हनन किये। बिना ही वे सयमाराधना में तत्पर रहती हैं, लेकिन विषय, कषाय, प्रमाद आदि में इन्द्रियाँ मारी (हनन की) जानी है। इन्द्रियों को जीतने का रहस्य यही है। इन्द्रियविजय से मोक्ष होता है और इन्द्रियों से पराजित होने पर संसार में परिभ्रमण ! दोनों का अन्तर जान कर जो हितकर (अच्छा) लगे उसी पर चलो। रूईभरे गद्दे आदि के मुलायम स्पशं और पत्थर आदि के कठोर स्पर्श पर होने वाली रति-अरति पर कर्मबन्ध का सारा दारोमदार है । अतः स्पर्श के प्रति होने वाली रति-अरति का त्याग करके स्पर्शन्द्रियविजेता बन । सेवन करने योग्य स्वादिष्ट एव सरस वस्तु पर प्रीति और नीरस पदार्थों पर अप्रीति को छोड़ कर भलीभाति जिह्वेन्द्रिय-विजयी बन । सुगधित पदार्थ मिले या दुर्गन्धित ; वस्तु के पर्याय और परिणाम जान कर रागद्वेष किये बिना तू घ्राणेन्द्रिय पर विजय प्राप्त कर । मन और आँखों को आनन्द देने वाले मनोहररूप देख कर और उसके विपरीत कुरूप देख कर हर्ष या घणा किये बिना नेत्रन्द्रिय पर विजयी बन। वीणा और अन्य वाद्यों के मधुर कर्णप्रिय स्वरलहरी के प्रति राग और भद्दे, बीभत्स, कर्णकटु कर्कश और अपमानित करने वाले गधे, ऊंट आदि शब्द सन कर देष या रोष किये बिना कर्णन्द्रिय पर विजय प्राप्त कर। इस जगत में कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है, जो एकान्त मनाहर हो या सर्वथा अमनोहर ; जिसका इन्द्रियों ने आज तक सभी जन्मों में अनुभव नही किया हो। फिर तू उसमे माध्यस्थभाव क्यों नहीं रखता? तू शुभविषयों के प्रति अशुभत्व
और अशुभवस्तु के प्रति शुभत्त्व की कल्पना करता है ; फिर अपनी इन्द्रियों को कैसे राग से मुक्त और विराग से युक्त बनाएगा? तू जिस कारण से किसी वस्तु के लिए कहता है कि इसके प्रति प्रीति (मोह) होनी चाहिए, उसी पर घृणा और द्वेष हो सकता है ! वस्तुतः पदार्थ अपने आप में न शुभ है, न अशुभ ; मनुष्य की अपनी दृष्टि ही शुभ या अशुभ होती है । अतः विरक्तचित्त हो कर इन्द्रियविषयों के माधवरूप राग-देष का त्याग और इन्द्रियविजेता बनने का मनोरथ करना चाहिए ।
___ इन दुर्जेय इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने का क्या उपाय है ? उसे बताते हैं-प्रथम तो मन की निर्मलता आवश्यक है, साथ ही यमनियम का पालन भी जरूरी है । वृद्धसेवा तथा शास्त्राभ्यास आदि भी इन्द्रियविजय के कारण हैं। इन सब में असाधारण कारण तो मन की शुद्धि है। दूसरे कारण ऐकान्तिक और आत्यन्तिक नहीं हैं। मन की निर्मलता के बिना यम-नियमादि होने पर भी वे इन्द्रियविजय के कारण नहीं हो सकते । इसी श्लोक में कहा है-'तां विना यमनियमों' इत्यादि । यम यानी पचमहाव्रतरूप मूलगुण और नियम यानो पिंडविशुद्धि-समितिगुप्तिरूप उत्तरगुण, उपलक्षण से वृद्धसेवा मादि कायापरिश्रम । किन्तु मनःशुद्धि के बिना यह सारा पुरुषार्थ निष्फल है। मरुदेवी आदि की तरह कई व्यक्तियों को तो मनःशुद्धि स्वाभाविक होती है और कई लोगों को यम-नियम आदि उपायों से मन को नियंत्रित करने पर होती है। अनियंत्रित मन क्या करता है ? इसके बारे मे आगामी श्लोक में कहते हैं
मनः क्षपाचरो घाम्यन्नपशंकं निरंकुशम् ।
प्रपातयति संसारावर्तगर्ते जगत्त्रयोम् ॥३५॥ अर्थ- निरंकुश मन रामस की तरह निःशंक हो कर भागदौड़ करता है और तीनों जगत् के जीवों को संसाररूपी वरनाल के गड्ढे में गिरा देता है।