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योगशास्त्र : चतुर्थ प्रकाश
अर्थ-मन बंदर है, ऐसा बंदर, जो सारे विश्व में भटकने का शौकीन है । अतः मोक्षाभिलाषी पुरुष को अपने मनमर्कट को प्रयत्नपूर्वक वश में करना चाहिए ।
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व्याख्या - मन बंदर की तरह चंचल है; यह बात सर्वत्र अनुभवसिद्ध है । मन और बंदर की समानता बताते हैं - बदर जैसे जंगल में स्वच्छन्द भटकता है, उसके भ्रमण पर कोई अंकुश नहीं होता ; वैसे ही मन भी विश्वरूपी अरण्य में बेरोकटोक भटकता है। इसीलिए कहा है-मन भिन्न-भिन्न विषयों को पकड़ कर चंचलतापूर्वक भ्रमण करने का शौकीन है । ऐसे अनियंत्रित मन की चपलता को छुड़ा कर उसे उचित विषयों में लगा देना चाहिए। वह कैसे लगाया जाय ? अभ्यासरूप प्रयत्न से । ऐसा कौन करे ? आत्मा की मुक्ति का इच्छुक । आशय यह है कि मन की चपलता को रोकने वाला ही मुक्ति की साधना में समर्थ हो सकता है ।
अब इन्द्रियविजय में कारणभूत मनः शुद्धि की प्रशंसा करते हैं
दीपिका खल्वनिर्वाणा, निर्वाणपथदर्शनी । एकैव मनसः शुद्धिः प्राप्त मनीषिभिः ॥४०॥
अर्थ - पूर्वाचार्यों ने माना है कि - यम-नियम आदि के बिना अकेली मनःशुद्धि भी ऐसी दीपिका है, जो कभी बुझती नहीं और सदा निर्वाणपथ दिखाने वाली है ।
भावार्थ- - कहा भी है-ज्ञान, ध्यान, दान, मान, मौन आदि शुभयोग में कोई अत्यन्त उद्यम करता हो, लेकिन उसका मन साफ ( निर्मल) न हो तो उसका वह उद्यम राख में घी डालने जैसा समझना चाहिए ।
अब अन्वय-व्यतिरेक से मनः शुद्धि से अन्यान्य लाभ बताने की दृष्टि से उपदेश देते हैंसत्यां हि मनसः शुद्धौ सन्त्यसन्तोऽपि यद् गुणाः । सन्तोऽप्यसत्यां नो सन्ति, सैव कार्या बुधैस्ततः ॥४१॥
अर्थ - यदि मन की शुद्धि हो और दूसरे गुण न हों, तो भी उनके फल का सद्भाव होने से क्षमा आदि गुण रहते ही हैं; इसके विपरीत, यदि मन की शुद्धि न हो तो दूसरे गुण होने पर भी क्षमा आदि गुण नहीं हैं, क्योंकि उसके फल का अभाव है। इस कारण विवेकी पुरुषों को अवश्य ही फलदायिनी मनःशुद्धि करनी चाहिए ।"
जो ऐसा कहते हैं कि 'मनः शुद्धि की क्या आवश्यकता है? हम तो तपोबल से मुक्ति प्राप्त कर लेंगे । उन्हें प्रत्युत्तर देते हैं
मनः शुद्धिमविभ्राणा, ये तपस्यन्ति मुक्तये ।
त्यक्त्वा नावं भुजाभ्यां ते, तितीर्षन्ति महार्णवम् ॥४२॥
अर्थ - जो मनुष्य मनःशुद्धि किए बिना मुक्ति के लिए तपस्या का परिश्रम करते वे नौका को छोड़ कर भुजाओं से महासागर को पार करना चाहते हैं।"
'तप-सहित ध्यान मुक्ति देने वाला है' यों कह कर जो मनःशुद्धि की उपेक्षा करते हैं और 'ध्यान ही कर्मक्षय का कारण है' ऐसा प्रतिपादन करते हैं, उन्हें उत्तर देते हैं