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सरलता की महिमा और लोभकपाय का स्वरूप
कारण है। इनना ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है बागी कामवावाम है। जगत में सरलता का धनी मानव प्रीतिभाजन बनता है, जबकि कुटिलता से भरा मनुष्य गप को भरद उद्विग्नना प्राप्त करता है । मरलचित्त व्यक्ति मंमारवाम में रहता हुआ भी अनुभव कर योग्य महज वाभाविक मुक्ति सुख का अनुभव करता है । कुटिलता की कील में जकड़ा हुआ क्लिष्टचित्त पर टगन में शिकारी के समान दक्ष मनुष्य स्वप्न में भी उस सुख को कैसे प्राप्त कर सकता है ? भले ही मनुष्य ममग्र कलाओं में चतुर हो, समस्त विद्याओं में पारंगत हो, लेकिन बालक की-सी सरलता नो कमी भाग्यशाली को ही नसीब होती है। अज्ञानी बालक की सरलता ही उसे प्रीतिभाजन बना देती है। यदि कोई मनुष्य सर्वशास्त्रों के अर्थ में परिनिष्ठ हो, और साथ ही उममें सरलता हो तो कहना ही क्या । मरलला म्वाभाविक है, कुटिलता बनावटी है । अतः स्वाभाविक धर्म को छोड़ कर कृत्रिम और अधर्म मापा को कोन पकड़ेगा? छलप्रपंच, धोखाधड़ी, झूठफरेब करने, चुगली खाने और मुंह पर कुछ और बोलन और हृदय में कुछ और भाव रखने आदि बातों में निपुण लोगों के सम्पर्क में आ कर विरले हो भाग्यशालोम्वर्णतिना क समान निर्विकारी बने रह सकते हैं। गणघर श्रीगौतम स्वामी श्रनममुद्र में रगत थ, फिर भी आश्चर्य है कि वे नवदीक्षित के समान सरलता के धनी बन कर भगवदव बन मुनने थे। कितनं ही दुष्कर्म किये हों; लेकिन सरलता से जो अपने कृन दुष्कर्मों की आलोचना करना है, वह समस्त कमों का क्षय कर देता है। परन्तु यदि लक्ष्मणा साध्वी की तरह कपट रख कर दर सपूर्वक आलोचना को तो उसका पाप अल्पमात्र होते हुए भी वह संसारवृद्धि का कारण बनेगा। मोक्ष उमे तो मिलता है, जिसकी आन्मा में सब प्रकार की सरलता हो । जिसके मन, वाणी और कर्म (काया) में कुटिलता भरी है, उसकी मुक्ति किसी प्रकार भी नहीं होती। अतः सरलपरिणामी साधकों का चरित्र निदीप बताया है और कुटिल परिणामी साधक उग्रकर्मबन्धन के भागी बनते हैं। विवेकबुद्धि से इन दोनो की तुलना करके शुद्ध बुद्धि वाले मुमुक्षु को अनुपम सरलभाव का आश्रय लेना चाहिए।" अब लोभकषाय का स्वरूप बताते हैं
आकरः सर्वदोषाणां गुणग्रसनराक्षसः ।
कन्दो व्यसनवल्लीनां लोभः सर्वार्थबाधकः ॥१८॥ अर्थ- जैसे लोहा आदि सब धातुओं का उत्पत्तिस्थान खान है, वैसे ही प्राणातिपात आदि समस्त दोषों की खान लोभ है। यह ज्ञानादि गुणों को निगल जाने वाला राक्षस है, आफत (दुःख) रूपी बेलों का कन्द (मूल) है। वस्तुनः लोभ धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप समस्त अर्थों-पुरुषार्थों में बाधक है।
भावार्थ-लोभ-कषाय मर्वदोषों की खान, समग गुणों का घातक, दुःख का हेतु, और सर्वपुरुषार्थघातक है । अत: लोभ दुर्जेय है । आगे तीन-श्लोकों में लोभ का स्वरूप बताते हैं।
धनहीनः शतमेकं, सहस्र शतवानपि । सहस्राधिपतिर्लक्ष, कोटि लक्षश्वरोऽपि च ॥१९॥