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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश कर उसने भी भलीभांति समझ कर श्रावकधर्म अंगीकार किया। भगवान की अमृतमयी वाणी श्रवण कर वह हपित हुई और विमानतुल्य तेजस्वी धर्मरथ में बैठ कर वह अपने घर लौटी। उस समय श्रीगौतम स्वामी ने सर्वज्ञ भगवान् से पूछा 'यह महात्मा आनन्द श्रावक साधुधर्म स्वीकार करेगा या नहीं ? त्रिकालदर्शी सर्वज्ञ भगवान् ने कहा-'आनन्द दीर्घकाल तक श्रावक के वनों का पालन करेगा। उसके बाद आयुष्य पूर्ण कर सौधर्मकल्प नामक प्रथम देवलोक के अरुणप्रभ विमान में चार पल्योपम को स्थिति वाला श्रेष्ठ देव होगा।'
इधर आनन्द पावक को बारह व्रतो का सतत सावधानी के साथ पालन करते हुए चौदह वर्ष बीत गये। शूद्ध स्थिरप्रज्ञ आनंद ने एक बार रात के अन्तिम प्रहर में विचार दिया कि मै इस नगर में बहुत से लोगों का आधारभून हूं; उनकी चिन्ता करते-करते ही कही मेरा पता न हो जाए । यदि ऐसा हुआ तो मेरे द्वारा स्वीकृत सर्वज्ञ-कथित धर्म में अतिचारादि दोष लग जायंगे । इत्यादि प्रकार से मन में शुभ भाव-पूर्वक चिन्तन करते हुए आनन्द श्रावक प्रातःकाल उठा। उमने अपने सकल्पानुसार कोल्लाक सन्निवेश में अतिविशाल पोपधशाला बनवाई। वहां उसने अपने मित्र, सम्बन्धी, बन्धु आदि को निमंत्रण दे कर उन्हें भोजन करवाया । फिर उनके सामने अपने परिवार का सारा भार अपने बड़े पुत्र को सोपा और मित्रज्ञातिस्वजन आदि का सम्मान कर उनकी अनुमति ले कर धर्मकार्य की अभिलापा से वह पौषधशाला में गया । वहाँ कपायजनित कमों और शरीर को कृश करता हुआ महात्मा आनद भगवान के कथनानुसार आत्मा के समान धर्म का पालन करने लगा। स्वर्ग और मोक्ष में चढ़ने के लिए निःश्रेणी के समान श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में वह उत्तरोत्तर चढ़ने लगा । तीव्र तपश्चर्या करते हुए उस महासत्व ने शरीर का रक्त और मांस सूखा दिया। चमड़ा लपेटी हुई लकड़ी के समान उसका शरीर दिखाई देने लगा। एक दिन रात को आनन्द-श्रावक धर्म-जागरण करता हुआ व सतत तपस्या मैं आनन्द मानता हुआ, इस प्रकार विचार करने लगा कि 'जब तक मुझ में खड़े होने की शक्ति है, जब तक में दूसरो को बुलाने में समर्थ हैं तथा मेरे धर्माचार्य यहाँ विचरते हैं, तब तक दोनों प्रकार की मारणान्तिक संलेखना स्वीकार करके चारों आहार का त्याग कर ल।" ऐसा विचार कर आन द श्रावक ने उसे क्रियान्वित किया ।' 'महात्मा लोगों के विचार और व्यवहार में कमी भिन्नता नहीं होती। जोवन और मरण के विषय में नि.म्पृह और समभाव के अध्यवसायी आनन्द को अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से अवधिज्ञान प्राप्त हुआ।
___ इधर विहार करते हुए श्रीवीर परमात्मा फिर यूतिपलाश उद्यान मे पधारे और उनका धर्मोपदेश पूर्ण होने के बाद श्री गौतम गणधर ने नगर में मिक्षार्थ प्रवेश किया। भिक्षाटन करते हुए से आनन्द श्रावक से विभूपित कोल्लाक सनिवेश में आहार-पानी लेने पधार । गौतमस्वामी के आगमन वे लोगों को आश्चर्य हुआ। आम रास्ते पर खड़े लोग एकत्रित हो कर गोतम स्वामी से कहने लगे'श्रीवीर परमात्मा के पुण्यशाली श्रावक शिष्य आनन्द ने अनशनव्रत अंगीकार किया है, उसे किसी भी प्रकार के सांसारिक सुखों की अभिलाषा नहीं है।' उसे सुन कर गौतमस्वामी ने विचार किया कि'चलू, उस श्रावक को दर्शन दे दूं।' इस विचार से वे उसकी पोषधणाला में पहुंचे । अकस्मात अचिन्तित रत्नवृष्टि के समान उनके दर्शन होने में आनंद श्रावक अत्यन्त हर्षित हुआ और वन्दन करते हुए उसने कहा कि 'भगवन् ! क्लिष्ट अनशन तप करने से मुझ में खड़े होने की शत्ति नहीं है । अतः आप निकट पधारें ; जिससे आपके चरणकमल स्पर्श करूं।' इस पर महामुनि गौतम आनन्दधावक के निकट मा