________________
कषाय : लक्षण, भेद-प्रभेद एवं विवेचन
४३३ दर्शन और चारित्र भी उसी में गतार्थ हो कर प्राप्त हो जाते हैं । आत्मा को इस लोक में कषायों और इन्द्रियों का विजेता कहा है। अत: सर्वप्रथम कपायों का विस्तार से निरूपण करते हैं
स्युः कषायाः क्रोध-मान-माया-लोभाः शरीरिणाम् ।
चतुर्विधास्ते प्रत्येकं, भेदे. संज्वलनादिभिः ॥६॥ अर्थ क्रोष, मान, माया और लोम ये चार कषाय हैं, जो शरीरधारी आत्मा में होते हैं। संज्वलन आदि के भेद से क्रोधादि प्रत्येक कषाय के चार-चार भेद हैं ।
व्याख्या-क्रोध, मान, माया और लोभ को कषाय कहा जाता है । अथवा जिसमे जीवों की हिंसा हो, उसे कपाय कहते हैं । 'कष्' का अर्थ है-संसार अथवा कर्म और उसका 'आय' अर्थात् प्राप्त होना कषाय है । इसके कारण बार-बार संसार में आवागमन करना पड़ता है। कषाय शरीरधारी मारी बीबों के ही होता है, मुक्तात्मा को नहीं होता। क्रोधादि चार प्रकार का कषाय संज्वलनादि के भेद से प्रत्येक चार-चार प्रकार का है। जैसे-क्रोध के चार भेद है संज्वलनक्रोध, प्रत्याख्यानावरणक्रोध, अप्रत्याख्यानावरणक्रोध और अनन्तानुबन्धी क्रोध । इसी तरह मान, माया और लोभ के भी चार-चार भेद समझ लेना।
अव संज्वलनादि कपायों के लक्षण कहते हैं
पक्ष संज्वलनः प्रत्याख्यानो मासचतुष्टयम् ।
अप्रत्याख्यानको वर्ष, जन्मानन्तानुबन्धकः ॥७॥ अर्थ एवं व्याख्या-संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ की कालमर्यादा पंद्रह दिन तक की रहती है । संज्वलनकषाय घास की अग्नि के समान अल्पसमय तक जलाते हैं। अथवा परिपह आदि के माने से जलने का स्वभाव हो जाता है । 'प्रत्याख्यान'-जैसे भीमसेन को भीम कहा जाता है, वैसे ही यहां पसायानावरण शब्द को संक्षेप में 'प्रत्याख्यान' कहा है। प्रत्याख्यानावरण-कषाय सर्व विरति प्रत्याख्यान (नियम) को रोकने वाला है। यह चार महीने तक रहता है । अप्रत्याख्यानावरण कषाय में 'ना' समास अल्पार्थक है, इसलिए अर्थ हुमा--जो देशविरति प्रत्याख्यान को रोकता है। इसके चारों कषाय एक वर्ष तक रहते हैं । अनन्तानुबन्धी कर्म बांधने वाला कषाय मिथ्यात्व-सहित होने से अनन्तभवों तक उसकी परम्परा चलती है। अनंतानुबन्धी क्रोधादि-कषाय जन्मपर्यन्त तक रहता है। प्रसन्नचन्द राजर्षि आदि के क्षणमात्र की स्थिति होने पर भी वह अनुबन्धी कषाय है, अन्यथा नरकयोग्य कर्मों के उपार्जन का अवसर नहीं आता।
इस तरह काल का नियम करने पर भी संज्वलन आदि लक्षण में अभी अपूर्णता होने से दूसरे लक्षण आगे बताते हैं
वीतराग-यति-धाड-सम्यग्दृष्टित्वघातकाः । ते देवत्व-मनुष्यत्व-तिर्यक्त्व-नरकप्रदाः ॥८॥