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योगशास्त्र : चतुर्थ प्रकाश
अर्थ - वे संज्वलनादि चार कषाय क्रमशः वीतरागत्व, साधुत्व, श्रावकत्व और सम्यक्त्व का घात करते हैं, तथा ये क्रमशः देवत्व, मनुष्यत्व, तिर्यक्त्व और नरकत्व प्राप्त कराते हैं ।
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व्याख्या - व' प्रत्यय सभी के साथ जोड़ने से अर्थ हुआ - कपायचतुष्टय वीतरागत्व, साघुत्व, श्रावकत्व और मम्यक्त्व का क्रमशः घात करता है। वह इस प्रकार सज्वलन - क्रोधादि कपाय के उदय में साधुत्व तो होता है, परन्तु वीतरागत्व नहीं रहता प्रत्याख्यानावरणीय कपाय के उदय में श्रावकत्व तो रहता है, किन्तु साधुत्व नही रहता, अप्रत्याख्यानावरणीय के उदय में सम्यगृष्टित्व तो रहेगा, परन्तु देशविति श्रावकत्व नहीं रहेगा और अनन्तानुबंधी कषाय के उदय में सम्यग्दृष्टित्व भी नहीं रहता है । इस तरह संज्वलन वीतरागत्व का घात, प्रत्याख्यानावरणीय साधुत्व का घात, अप्रत्याख्यानावरणीय श्रावकत्व का घात और अनन्तानुबन्धी सम्यक्त्व का घात करता है । इस तरह स्पष्ट लक्षण बताया । अब श्लोक क उत्तरार्ध में कषायो का फल कहते हैं-सज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ के रहते देवर्गात का फल मिलता है, प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि के रहत मनुष्यगति, अप्रत्याख्यानावरण कषाय के होने से तियंचगति और अनन्तानुबन्धी कषाय से नरकगति मिलती है। अब इन सज्वलनादि चार कषायों का स्वरूप उपमा दे कर समझाते हैं – संज्वलन आदि चार प्रकार का क्रोध क्रमशः जल मे रेखा, रेत मे रेखा, पृथ्वी पर रेखा और पर्वत की रेखा के समान होता है । तथा चार प्रकार का मान बेत की छड़ी के समान, काष्ठ ममान होता है । चार प्रकार की माया के रामान और बांस की जड़ के समान मैल के समान गाड़ी के पहिये के
की लकड़ी के समान हड्डी के समान और पत्थर के स्तम्भ के बांस की छाल के समान, लकड़ी की छाल के समान, मेंढे के सीग है और चार प्रकार का लोभ हल्दी के रंग के समान, सकोरे में लगे कीट के समान तथा किरमिची रंग के समान होता है ।
अब चारों कषायों के अधीन होने से होने वाले दोष बतलाते हैं
तत्रोपतापकः क्रोधः, क्रोधो वैरस्य कारणम् । दुर्गतेर्वर्तनी क्रोधः क्रोधः शम - सुखार्गला ॥ ९ ॥
अर्थ - इन चारों में प्रथम कषाय क्रोध शरीर और मन दानों को सताय देता है ; क्रोध वर का कारण है, क्रोध दुर्गति की पगडंडी है और क्रोध प्रशमसुख को रोकने के लिए अर्गला के समान है
व्याख्या - इस श्लोक में क्रोधशब्द का बार-बार प्रयोग इसलिए किया गया है कि क्रोध अत्यन्त दुष्ट और हानिकारक है, आत्मा के लिए । यह अग्नि की तरह अपने आपको और पास में रहे हुए की सनाप से जला डालता है। क्रोध से वैरपरम्परा इसी तरह बढ़ती जाती है, जैसे सुभूम और परशुराम वैरी बन कर परस्पर एक दूसरे के घातक हो गए थे। क्रोध दुर्गति यानी नरकगति में ले जाने बाला है ।
क्रोध स्वयं को कैसे जलाता है, इसका समर्थन आगामी श्लोक में करते हैंउत्पद्यमानः प्रथमं दहत्येव स्वमाश्रयम् । क्रोधः कृशानुवत् पश्चादन्यं दहति वा न वा ॥ १०॥