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बाइस परिषहों पर विवेचन
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(१८) मल, (१६) मत्कार, (२०) प्रजा, (२१) अज्ञान और (२२) अदर्शन-परिपह। इन २२ परिषहों पर विजय प्राप्त करना संलेखनाव्रती तथा महाव्रती साधक के लिए आवश्यक है।
बाइसपरिषह -(१) अधापरिषह क्षुधा से पीड़ित, शक्तिशाली विवेकी साधु गोचरी की एषणा का उल्लंघन किए बिना अदीनवृत्ति से (घबराये बिना) केवल अपनी संयमयात्रा के निर्वाह के लिए भिक्षार्थ जाए । संलेखनाधारी माधक भख लगने पर समभाव से सहन करे। (२) तषा-परिबहमुनि प्यासा हाने पर मार्ग में पड़ने वाले नदी, तालाब, कुए आदि का सचित्त पानी देख कर उसे पीने की इच्छा न करे, परन्तु दीनता छोड़ कर अचित्त जल की गवेषणा करे । संलेखनाधारी भी प्यास लगने पर उसे समभाव से सहे। (२) शीत-परिवह ठड से पीड़ित होने पर पास में वस्त्र या कम्बल न हो तो भी अम.ल्पनीय वस्त्रादि ग्रहण नही करे, न ठड मिटाने के लिए आग जलाए या आग तापे । (४) उष्ण-परिषह-धरती तपी हा, फिर भी गर्मी की निन्दा न करे और न ही पंखे या स्नान आदि की अभिलाषा करे। (५) वंश-मशकपरिषह-डांस-मच्छर, खटमल आदि जीवों द्वारा डसने या काटने का उपद्रव होने पर भी उन्हें त्रास न देना, उन पर द्वेष न करना, किन्तु माध्यस्थ्यभाव रखना, क्योंकि प्रत्येक जीव आहारप्रिय होना है। (६) अचेलक-परिषह-वस्त्र न हो, अशुभ वस्त्र हो तब 'यह वस्त्र अच्छा है, यह खराब है' ; ऐमा विचार न करे। केवल लाभालाभ की विचित्रता का विचार करे। परन्तु वस्त्र के अभाव में दुःख न माने । (७) अरति-परिषह-धर्मरूपी उद्यान में आनन्द करते हुए साधु या माधक विहार करते-बैठने-उठने अथवा संयम-अनुष्ठान करते या धर्मपालन करते हुए कभी अरति, अरुचि या उदासीनता न लाए, बल्कि मन को सदा स्वस्थ और मस्ती में रखे। () स्त्री-परिषह-दुर्ध्यान कराने बाली, सगरूप, कर्मपक में मलिन करने वाली, मोक्षद्वार की अर्गला के समान स्त्री को स्मरण करने मात्र से धर्म का नाश होता है। इसलिए इसे याद ही न करना चाहिए । (९) चर्या-परिषह-गांव, नगर, कस्बे आदि में अनियतरूप में रहने वाला साधु किसी भी स्थान में ममत्व रखे बिना विविध अभिग्रह धारण करते हए अकेला भी हो, फिर भी नियमानुसार विहार आदि की चर्या करे; विचरण करे। (१०) निषद्या-परिषह -स्मशानादिक स्थान में रहना निषद्या-स्थान कहलाता है। उसमे स्त्री, पशु या नपुंसक के निवास से रहित स्थान में अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग सहन करते हुए निर्भयता से रहना । (११) शय्या-परिषहशुभ अथवा अशुभ शय्या मिलने पर अथवा सुख या दुःख प्राप्त होने पर मन में रागद्वेष नहीं करना चाहिए। इसे सुबह नो छोड़नी ही है : ' ऐसा विचार कर हर्ष-शोक नहीं करना चाहिए । (१२) आकोशपरिषह-आक्रोश करने वाले पर क्रोध नहीं करना. अपितु क्षमा रखना, समभाव से सहना। क्योंकि समा रखने या क्षमा देने वाला श्रमण कहलाता है। बल्कि आक्रोश करने वाले को उपकारी-बुद्धि से देखना चाहिए । (१३) वध-परिषह-मुनि को कोई मारे, पोटे, उस समय यह विचारे कि आत्मा का नाश तो कभी नहीं होता। क्रोध की दुष्टता से कर्मबन्ध और क्षमा के द्वारा गुण-उपार्जन होता है ; अतः उसे मारने न जाए, अपितु वध-परिषह सहन करे । (१४) याचना-परिषह-भिक्षाजीवी साधु दूसरों के द्वारा दिये हुए पदार्थ से अपनी जीविका चलाते हैं। अतः याचना करने में साधु-साध्वी न तो शर्म रखे और न दुःख ही माने। याचना से घबरा कर गृहस्थजीवन स्वीकारने की इच्छा न करे। (१५) अलाभपरिवह-अपने लिये या दूसरे के लिए दूसरों से आहारादि न मिलने पर दुःख और मिलने पर लाभ का अभिमान न करे। किसी ने आहारादि नहीं दिया तो उस व्यक्ति या गांव की निन्दा न करे ।