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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश
चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या ये चारों तिथियां मिल कर चतुष्पों कहलाती है । इन पदों के दिन मम्यगरूप से पौषध करना, चौथी पौषध-प्रतिमा है। पूर्वकथित समस्त अनुष्ठानो से युक्त हो कर नारों पदिना में गत्रि को घर के अन्दर या घर के बाहर द्वार पर अथवा चोक में परिपह-उपसर्ग आने पर भी निश्चेष्ट कायोत्सर्ग धारण करके रहना, पाचवी कायोत्सर्ग-प्रतिमा है। ब्रह्मचर्य-प्रतिमा मे ब्रह्मचर्य का दृढतापूर्वक पालन करना होता है। मातवी सचित्तवन-प्रतिमा में अचित्त आहार का ही उपयोग करना होता है। आठवी आरम्भवजनप्रतिमा में सावद्यारम्भ का त्याग करना। नौवी प्रेष्यवर्जनप्रतिमा में दूसरो से भी आरम्भ नही कराना; दसवी उद्दिष्टवर्जन प्रतिमा में अपने लिए बनाए हुए आहार का भी त्याग करना, ग्यारहवी श्रमणभूत-प्रतिमा में नि:संग बन कर साधुवेश एवं काप्ठपात्र, रजोहरण वगैरह ले कर माधुवत् चर्या करना । सिर के बालो का लोच या मुडन करना तथा अन्य क्रियाएं भी सुमाधु के ममान करना । तथा पूर्वोक्त श्रमणगुणों क प्रति आदर-शील बने । अब पान श्लोको द्वारा श्रावक के लिए सलेखना की विशेषविधि कहते है
सोऽथावश्यकयोगानां भंगे मृत्योरथागमे ।
कृत्वा संलेखनामादौ, प्रतिपद्य च संयमम् ।।१४८। अर्थ-श्रावक जब यह देखे कि आवश्यक संयम-प्रवृत्तियों (धार्मिक क्रियाओं) के करने में शरीर अब अशक्त व असमर्थ हो गया है अथवा मृत्यु का समय सन्निकट आ गया है; तो सर्वप्रथम संयम का अगोकार करके संलेखना करे।
व्याख्या मलेखना का अर्थ है. शरीर और कपायो को पतले करने के लिए आहार और क्रोधादि का त्याग करना । इमम पहले शरीर - सलेखना करना हाता है यानी क्रमशः भोजन का त्याग करके शरीर को कृण करना, जिससे अनायास ही सब धातुओं का क्षय हो जाय । नहीं तो, अन्तिम समय में शरीरधारी जीव की आत्तं ध्यान होगा। और दूसरो कपाय-संलेखना है, इममे शरीर कृण होने के साथ साथ क्रोध, मान माया, लोभ, मोह, मत्मर, प, काम आदि कपाय भी कृश होने चाहिए। नहीं तो, उस सलखनाधाग माधु की तरह होगा, जिसे 31+ गुरु ने कहा था- 'मैं इसकी प्रशमा नही करता कि तेरी यह अगूली विम तरह टूट गई ? उम पर विचार कर । इमलिए भाव-लखना कर । अनशन (संथारा, करने की उतावल न कर।' इत्यादि विस्ता स बताया गया है। संलेखनाधारक श्रावक यथोचितरूप से संयम भी अंगीकार करे । उमको समाचारी इस प्रकार समझनी चाहिए - श्रावक समस्त-श्रावकधर्म - उद्यापन को हा जानना हो तो अन्त मे सयम स्वीकार कर । ऐमे श्रावक को अन्त में सयमधर्म में भी शेष रही धर्मस्वरूप-सलेखना अगीकार करनी चाहिए । इमी दृष्टि गे कहा है कि - संलेहणा उ अंते न निओआ जेण पध्यअइ कोई। जो अन्तिम ममय में भी सयम अगीकार करता है, वह संयम लेने के पश्चात समय में संलेखना करके समाधिपूर्वक प्रमन्नना से मृत्यु का स्वीकार करें और संलेखना के बाद जो सयम अंगीकार नहीं करता, वह आनन्द श्रावक की भांति ममाधिमरण प्राप्त करे।
आनन्द श्रावक की कथा का प्रसंग आगे आएगा।
जन्म-दोक्षा-ज्ञान-मोक्ष-स्थानेषु श्रीमदर्हताम् । तदभावे गृहेऽरण्ये, स्थण्डिले जन्तुवजिते ॥१४५॥