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देव द्वारा कठोर परीक्षा में उत्तीर्ण कामदेव श्रावक
४१७ सर्प धारण किये हुए था। उसने सहसा क्रुद्ध हो कर म्यान से तलवार निकाली और चाबुक सरीखी भयंकर तर्जनी उंगली उठा करता हआ कामदेव से इस प्रकार कहने लगा-'अरे धर्त । अनचाही वस्तु के अभिलाषी ! यह तने ज्या ढोंग कर रखा है ? बेचारा तेरे जैसा दंभी आदमी स्वर्ग या मोक्ष चाहता है ? छोड़ दे, इस कार्य को । वरना, पेड़ से जैसे फल गिरते हैं ; वैसे ही इस तोखी तलवार से तेरे मस्तक को काट कर जमीन पर गिरा दूंगा। इस प्रकार से पिशाच की भयंकर अटहासपूर्ण धमकी भरी गर्जना सुन कर भी कामदेव अपनी समाधि से जरा भी चलायमान नहीं हुआ। क्या अष्टापद कमी भैसे की आवाज के सुन्ध मा है ? जब कामदेव श्रावक अपने शुभध्यान से लेशमात्र भी चलायमान न हुमा, तो अधमदेव ने दो-तीन बार उन्हीं बातों को दोहराया। बार बार धमकियां दी, इस पर भी जब वह विचलित न हुआ तो उसने दूसरा दांव फैका, मतवाले हाथी का रूप बना कर । सच है, 'पुष्टजन अपनी शक्ति को तोले बिना ही अधर्म कार्य करने से बाज नहीं आते।' उसने ऐसा विशाल और विकराल हाथी का शरीर धारण किया जो काले-कजरारे सजल मेघ के समान अत्यन्त ऊंचा था; मानो चारों ओर से सिमट कर एक ही जगह मिथ्यात्व का ढेर लग गया हो। उसके भयंकर लम्बे-लम्बे दो दतशूल यमराज के भुजदंड के समान लगते थे। कालपाश की-सी अपनी सूड ऊंची करके उसने कामदेव से कहा-'अरे मायावी ! छोड़ दे, इस मायाजाल को और आ जा मेरी शरण में ! मेरी आज्ञा में सुखपूर्वक रह । किसी पाखंडी गुरु ने तुझे बहका कर इस मोहदशा में डाला है । अगर तू अब भी इस धर्म के ढोंग को नहीं छोड़ेगा, तो देख ले, इसी सूरूपी डंडे से उठा कर आकाश में तुझे बहुत ऊँचा उछाल फैकूगा और जब तू वापिस आकाश से नीचे गिरने लगेगा, तब मैं तुझे इस दंतशूल पर ऐसे मेलूगा,जिससे तेरा शरीर दंतशूल से आरपार बिंध जायगा। फिर लकड़ी की तरह तुझे चीर डालूंगा; कुम्हार जैसे मिट्टी को रौंदता है, वैसे ही अपने पैरों से तेरे शरीर को रौंद डालूगा ; जिससे तेरी करुणमृत्यु हो जायगी। इतने पर भी न मरा तो तिल के समान कोल्हू में पीर कर क्षणभर में तेरे शरीर का एकपिट बना दूंगा।' उन्मत्त बने हुए देव ने इस तरह भयंकर से भयंकर वचन कहे, मगर ध्यान में मग्न कामदेव श्रावक ने कोई भी प्रत्युत्तर न दिया।
हदचित्त कामदेव को ध्यान में अमेल देख कर दुष्टाशय देव ने इसी प्रकार दो-तीन बार फिर वे ही बातें दोहराई , फिर भी जब वह चलित नहीं हुआ, तब सूण्डदण्ड से उठा कर आकाश में ऊंचा उछाला, फिर वापिस गिरते हुए को पास के पूले की तरह मेल लिया और दंतशूल से बींध गला। तत्पश्चात् उसे परों से कुचला। 'धर्मकार्यों के विरोधी दुरात्मा कौन-सा अकार्य नहीं कर बैठते ?' लेकिन महासत्व कामदेव ने यह सब धैर्यपूर्वक सहन किया। वह पर्वत के समान अडोल रहा। उसने जरा भी स्थिरता नहीं छोड़ी। ऐसे उपसर्ग (विपत्ति) आ पड़ने पर भी वह ध्यान से विचलित नहीं हवा, तब अहकारी अषमदेव ने सांप का रूप बनाया। और पूर्ववत् फिर उसने कामदेव को हराने की चेष्टाएं कीं। परन्तु वह धीर पुरुष अपने ध्यान में एकाग्र था। वह जरा भी डरा नहीं, डिगा नहीं। अपने बचन निष्प्रभाव और निष्फल होते देख कर तथा कामदेव को और ज्यादा निर्भीक व मजबूत देख कर वह सर्पाकार अधम देव तबले पर जैसे चमड़ा मढ़ा जाता है; वैसे ही सर्प के रूप में उसके सारे शरीर पर लिपट गया और कामदेव को निर्दयतापूर्वक तीक्ष्ण दांतों से अत्यन्त जोर से डसा । फिर भी अपने ध्यानामृत में मस्त बने कामदेव ने इस वेदना की कुछ भी परवाह नहीं की। तदनन्तर सब बोर से हार-थक कर उस देव ने अपना असली दिव्यरूप बनाया। फिर चारों दिशाओं को प्रकाशित करते