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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश
पहेचा और उनकी कर्णप्रिय सुधामयी धर्मदेशना सुनी। उसके बाद विश्ववन्द्य भगवान महावीर मे निर्मलबुद्धि कामदेव ने बारह व्रतो वाला गृहम्बधर्म अंगीकार किया। कामदेव ने भद्रा के सिवाय अन्य समस्त स्त्रीसेवन का त्याग किया। छह गोकुल के अलावा अन्य सभी गोकुलों का और निधान, व्यापार गृहव्य. वस्था के लिए क्रमशः छह-छह करोड़ स्वर्णमुद्राओं के उपरान्त धन का त्याग किया। खेती के लिये ५०० हलों की जमीन में पांच-भी खेतों का परिमाण किया। इतने ही छकड़े, गाड़ियाँ परदेश से माल लाने के लिए रखे, उसके उपरान्त का त्याग किया और परदेश लाने-पहुंचाने वाली चार सवारी गाड़ियां मर्यादा में रखीं। बाकी गाड़ियों का त्याग किया। एक सुगन्धित काषायवस्त्र (तौलिया) अग पोंछने के लिये रख कर, जन्य सब का त्याग किया। हरी मुलहठी का दांतुन रख कर अन्य किस्म के दांतुनों का तथा क्षीर-आमलक के सिवाय अन्य फलों का त्याग किया, तेलमर्दन करने के लिये सहस्रपाक अथवा शतपाक के अलावा तेलों के इस्तेमाल का त्याग किया । शरीर पर लगाने वाली खुशबूदार मिट्टी की उबटन के अलावा तमाम उबटनों का त्याग किया । तथा स्नान के लिये आठ घड़ों से अधिक पानी इस्तेमाल करने का त्याग किया ; चंदन व अगर के घिसे हुए लेप के सियाय अन्य लेप तथा पुष्प-माला और कमल के अतिरिक्त फलों का त्याग किया । कानों के गहने तथा अपने नाम वाली अंगूठी के अलावा आभूषणों का त्याग किया। दशांग और अगरबत्ती की धूप के सिवाय और धपों का त्याग किया। घेवर और खाजा रख कर अन्य सभी मिठाईयों का त्याग किया । पीपरामूल आदि से उबाल कर तैयार किए हुए काष्ठपेय (गुड़राब) के अलावा पेय, कलमी चावल के सिवाय अन्य चावल तथा उड़द, मूग और मटर के अतिरिक्त दालों (सूपों) का त्याग किया : शरदऋतु म निष्पन्न गाय के घी के सिवाय अन्य स्निग्ध वस्तुओं का, स्वस्तिक, मंड़क और पालक की भाजी के सिवाय अन्य भाजी का त्याग किया। वर्षाजल के अतिरिक्त जल का एवं सुगन्धित ताम्बूल के सिवाय ताम्बूल का त्याग किया।
इस प्रकार नियम ले कर भगवान को वन्दन का कामदेव अपने घर आया। उसकी धर्मपत्नी भद्रा ने भी जब अपने पति के बत-ग्रहण की बात सुनी तो उसने भी तीर्यकर महावीर के पास जा कर श्रावक के बारह व्रत अगीकार किये । इसके बाद कुटुम्ब का भार बड़े पुत्र को सौंप कर स्वयं कामदेव पौषधशाला में अप्रमत्तभाव से व्रतों का पालन करने लगा। एक दिन कामदेव काउस्सग्ग (ध्यान) में लोन था। तभी रात के समय उसे विलित करने के लिये कोई मिथ्यादृष्टि देव विकराल पिशाच का रूप धारण करके वहाँ .या। उसके सिर के बल पीले और क्यारी में पके हए धान के समान प्रतीत होते थे । उसका कपाल खप्पर के समान, भौंह नेवले की पूछ-सी और कान सूप-सरीखे आकार के थे। इसके नाक के दोनों नथूने ऐसे लगते थे मानो जुड़ा हुआ चूल्हा हो। दोनों ओठ ऊंट के-से मालूम होते थे, और दांत एकदम हल जैसे थे। उसकी जीभ माप की-सी और मूछ घोड़े को पूछ सरीखी थी। उसकी दो आँखें तपी हुई पीली पतीली की नाई चमक रही थीं। उसके होठ का निचला भाग शेर का-सा था। उसकी ठुड्डी हल के मुंह के समान थी । गर्दन ऊंट के समान लम्बी और छाती नगर के दरवाजे मरीखी चौड़ी थी । पाताल सरीखा उसका गहरा पेट था और कुंए के समान नाभि थी। उसका पुरुषचिह्न अजगर के समान था। उसके दोनों अण्डकोप चमड़ की कुप्पी के समान थे। ताड़वृक्ष की तरह लम्बी लम्बी उसकी दो जांघ थी, पर्वत की शिला के समान उसके दो पैर थे। अचानक बिजली के कड़ाके कीसी भयंकर कर्कश उसकी आवाज थी। वह कानों में आभूषण के बदले नेवला डाले हुए था ; उसके सिर पर चूहे की मालाएं डाली हुई थी और गले में कछुए की मालाएं पड़ी थीं। बाजूबंद के स्थान पर वह