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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश
संकल्पयोनिनाऽनेन हहा ! विश्वं विडम्बितम् ।
तदुत्खनयेऽभिसंकल्पं मूलमस्येति चिन्तयेत् ॥१३५॥
अर्थ-ओहो ! संकल्प से उत्पन्न होने वाले इस कामदेव ने तो सारे संसार को विडम्बना में डाल रखा है । अतः मैं विषय-विकार की जड़ इस संकल्पविकल्प को ही उखाड़ फैकगा। इस प्रकार का चिन्तन करे।
व्याख्या--काम की कल्पना या केवल विचार करना उसकी उत्पत्ति का वास्तविक कारण नहीं माना जाता; फिर भी संका उसकी योनि अर्थात् उत्पत्ति-- कारण है; यह सारे विश्व में अनुभवसिद्ध है। इस कामदेव ने सारे जगत् को परेशान कर रखा है। 'समग्र विश्व' इसलिये कहा गया है कि ब्रह्मा इन्द्र महादेव आदि मान्य व्यक्ति भी स्त्री के दर्शन, आलिंगन, स्मरण आदि कारणों से इससी विडम्वना से नहीं बचे। मुना है, पुराणों में उल्लेख है कि 'महादेव और गौरी के विवाह में ब्रह्माजी पुरोहित बने थे, पार्वती से महादेव ने प्रणय-प्रार्थना की थी, गोपियों की अनुनय-विनय श्रीपति विष्ण ने की थी, गौतमऋषि की पत्नी के माथ क्रीड़ा करने वाला इन्द्र था, बृहस्पति की भार्या तारा पर चन्द्र आसक्त था और अश्वा पर सूर्य मोहित था।' इस कारण ऐसे निःसार हेतु खड़े करके कामदेव ने जगत् को हैगन कर डाला है । यह अनुचित है। "अतः अब मैं जगत् को बिम्बित करने वाले काम के मन सकल्प को ही जड़मूल से उखाड़ फेकूगा;" इस प्रकार स्त्रीशरीर के अशुचित्व एव असारत्व पर तथा संकल्पयोनि (काम) के उन्मूलन इत्यादि पर चिन्तन-मनन करे। तथा निद्राभंग होने पर ऐसा भी विचार करे
यो यः स्याद् बाधको दोषस्तस्य तस्य प्रतिक्रियाम् ।
चिन्तयेद् दोष मुक्तेषु, प्रमोदं यतिषु वजन् ॥१३६॥
अर्थ-दोष से मुक्त मुनियों पर प्रमोदभाव रख कर अपने में जो-जो बाधक दोष दिखाई देता हो, उससे मुक्त होने के प्रतिकार (उपाय) का विचार करे।
व्याख्या-प्रशान्तचित्त के दाधक दोष राग, द्वेप, क्रोध, मान, माया, मोह, लोभ, काम, हा मत्सरादि दिखाई देते हैं। अत: उनका प्रतिकार करने के लिए चिन्तन-मनन करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि राग हो तो उमके प्रतिपक्षी वैगग्य का विचार करे, इसी प्रकार द्वेष के समय मंत्रीभाव, क्रोध के समय क्षमा, मान के समय नम्रता, माया के समय सरलता, लोभ के समय संतोष, मोह समय विवेक, कामविकार की उनपनि के समय स्त्री-शरीर के विषय में अशावभावना. ई के समय
पात्र व्यक्तिको कार्य में सहाय ना दे कर या उसके प्रति सद्भाव रख कर, मत्सर के समय दूसरे की तरक्की देख कर प्रमोदभाव (चित्त में दुःख न मान कर)-प्रसन्नता की अभिव्यक्ति, इस प्रकार प्रत्येक दोष की प्रतिक्रिया का मन में विचार करना चाहिए। एसा कभी नहीं सोचना चाहिए कि ऐसा करना असंभव है । क्योंकि इस विश्व में अनेक मुनिवर एवं गुणिजन सफल दिखाई देते हैं जिन्होंने जड़ जमाए हए कठोरतम दोषों का भी त्याग करके आत्मा को गुणसम्पन्न बनाई है। इसीलिए कहा है--'सद्गहस्थ को दोषों से रहित मुनियों पर प्रमोदभाव रखते हुए बाधक दोषों से मुक्त होने का विचार करना चाहिए। दोषमुक्त मुनि के दृष्टान्त से (आदर्श जीवन से) आत्मा में प्रमोदभाव जागृत होता है और बात्मा में जड़ जमाए हुए दोषों को छोड़ने में आसानी रहती है।