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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश
कामविजेता महामुनि स्थूलभद्र चन्द्रमा की चांदनी में प्रकाशित रात्रि की आकाशगंगा से प्रतिस्पर्धा करने वाली कमलसंगम से उसके तेज को पराजित कर देने वाली गंगा नदी के तट पर मनोहर पाटलीपुत्र नगर था । वहाँ कल्याण के स्वामी के तुल्य, त्रिखण्डाधिपति, शत्रुस्कन्धनाशक नंद नाम का गजा राज्य करता था । संकट में श्री का रक्षक, सकट-रहित बुद्धिनिधान शकटाल नाम का उसका सर्वश्रेष्ठ मंत्री था । उसका बड़ा पुत्र प्रखरबुद्धिमम्पन्न, विनयादि-गुणागार, सुन्दर, सुडौल एव चन्द्रवत् आनन्ददायक स्थूलभद्र था। तथा नन्दराजा के हृदय को आनन्ददायक, गोशीर्षचन्दन के ममान भक्तिमान श्रीयक नाम का उसका छोटा पुत्र था। उसी नगर में रूप और कान्ति में उर्वशी के समान लोकमनोहारिणी कोशानाम की वेश्या रहती थी । स्थूलभद्र उसके साथ दिनरात विविध भोगविलासों और आमोदप्रमोदो में तन्मय रहता था। उसे वहाँ रहते एक-एक करते हुए बारह वर्ष बीत गए । शकटाल-मंत्री नंदराजा के दूसरे हृदय के समान, अत्यन्त विश्वासपात्र और अगरक्षक बना हुआ था । उसी नगर में कवियों, वादियों और वैयाकरणों में शिरोमणि वररुचि नामक ब्राह्मणों का अगुआ रहता था। वह इतना बुद्धिशाली था कि प्रतिदिन १०८ नये श्लोक बना कर राजा की स्तुति करता था। किन्तु वररुचि कवि के मिथ्यादृष्टि होने के कारण शकटाल मंत्री कभी उमी प्रशंसा नहीं करता था। इस कारण नंदराजा उस पर प्रसन्न तो होता था, मगर उमे तुष्टिदान नहीं देता था। दान न मिलने का कारण जान कर वररुचि शकटालमंत्री की पत्नी की सेवा करने लगा। वररुचि की सेवा से प्रसन्न हो कर एक दिन मत्री-पत्नी ने उससे पूछा-"भाई ! कोई कार्य हो तो बतलाओ।" इस पर वरमचि ने कहा 'बस, बहन ! काम यही है कि तुम्हारा पति राजा के सामने मेरे काव्यों की प्रशंसा कर दे।" उसके इस अनुरोध पर मंत्रीपत्नी ने एक दिन अवसर देख कर मंत्री के सामने इस बात का जिक्र किया तो उसने कहा "मैं उस मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा कैसे कर सकता हूं। फिर भी पत्नी के अत्यन्त आग्रहवश मत्री ने उस बात को मंजूर किया। सच है, 'बालक, स्त्री और मूर्ख का हठ प्रवल होता है।' एकदिन वररुचि नंदराजा के सामने अपने बनाये हुए काव्य प्रस्तुत कर रहा था, तभी महामंत्री ने 'अहो सुन्दर-सुभाषितम' कह कर प्रशसा की। इस पर राजा ने उसे एकमो आठ स्वर्णमुद्राएँ ईनाम दीं। वस्तुत: राजमान्य पुरुष के अनुकूल बचन भी जीवनवाता होते हैं।' अब तो प्रतिदिन राजा से एक सौ आठ स्वर्णमुद्राएं वररुचि को मिलने लगीं।
एकदिन शकटालमंत्री ने राजा से पूछा--"आप वररुचि को क्यो दान देते हैं ?' राजा ने कहा-'अमात्यवर ! तुमने इसकी प्रशंसा की थी, इस कारण मैं देता हूं। यदि मुझे देना होता तो मैं पहले से ही न देता? किन्तु जिम दिन से तुमने उसकी प्रशंसा की, उसी दिन से मैंने उसे दान देना प्रारम्भ किया है।" इम पर मंत्री ने कहा --"देव ! मैंने उसकी प्रशंसा नहीं की थी; मैंन तो उस समय दूसरे काव्यों की प्रशंसा की थी । वह तो दूसरों के बनाये हुए काव्यों को अपने बनाये हुए बता कर भापके सामने प्रस्तुत करता है।" राजा ने पूछा --- "क्या यह बात सच है ?" मंत्री ने कहा -- 'बेशक ! इन काव्यों को मेरी पुत्री भी बोल सकती है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मैं कल ही आपको बता दूंगा।" शकटाल के ७ पुत्रियां थीं - यक्षा, यक्षदत्ता, भूता. भूतदत्ता, सेणा वेणा, और रेणा । वे सातों बुद्धिमती थीं। उनमें से पहली (यक्षा) एक बार सुन कर, दूसरी दो बार, तीसरी तीन बार, यों क्रमशः सातवीं पुत्री सात बार सुन कर याद कर लेती थी । दूसरे दिन मंत्री ने अपनी सातों पुत्रियों को राजा के सामने