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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश
गुरु, तपस्वी, बाल, ग्लान, वृद्ध आदि को पहले ६ कर बवे हुए आहार को स्वयं सेवन करना; (.) तोरियं (तीरित)- प्रत्याख्यान की अवधि पूर्ण हो जाने के बाद थोड़े समय तक स्थिरता करके बाद में आहार करना । (५)कीटियं (कीर्तित)-प्रत्याख्यान के अनुरूप आहार करते समय यह याद करके कि मैंने आज अमुक प्रत्याख्यान अंगीकार किया है ; भोजन करे ; अथवा जो प्रत्याख्यान ग्रहण किया है, उसकी महत्ता का बखान करना-कीर्तन करना भी कीर्तित कहलाता है । (६) मराहियं (आराधित)=इन सभी प्रकार की शुद्धि के साथ आगारों को भलीभांति मद्देनजर रखते हुए लिये हुए प्रत्याख्यान को अमल में लाना ।
अब प्रत्याख्यान के अनन्तर और परस्पर, दो प्रकार के फल बताते हैं। पच्चक्खाण करने से बाने वाले कमों के द्वार बद हो जाते हैं। इससे इच्छा-तृष्णा का उच्छेद होता है । तृष्णा शान्त होने से अनुपम उपशमभाव प्रगट होता है; इस कारण से प्रत्याख्यान शुद्ध होता है। शुद्ध प्रत्याख्यान से साधक चारित्रधर्म का यथार्थस्वरूप प्राप्त करता है। इससे पूर्व कृत (पुराने) कर्मों की निर्जरा होती है, जिससे उत्तरोत्तर गुणस्थान की प्राप्ति करते-करते साधक एक दिन केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है; और केवलज्ञान से शाश्वतसुख-स्थानरूप मोक्षफल प्राप्त होता है। इस तरह प्रत्याख्यान परम्परा से मोक्षफलदाता है। इस प्रकार प्रत्याख्यान-आवश्यक-सहित छह आवश्यकों के स्वरूप का वर्णन पूर्ण हुआ। 'धावक के लिए केवल चैत्यवन्दन आदि ही अवश्यकरणीय हैं, उसे इन षट्-आवश्यकों को करने की
आवश्यकता नहीं'; ऐसा कदापि प्रतिपादन नहीं करना चाहिए । इसीलिए कहा है- 'श्रमण या श्रावक के लिए रात या दिन के अन्त में ये (छह) अवश्य करने योग्य हैं, इसीलिए इनका नाम मावश्यक (प्रतिक्रमण) कहा है । इसी तरह आगम में भी श्रावक को प्रतिक्रमणादि अवश्य करने का कहा है। यहाँ चैत्यवंदन बादि के समान बावश्यक को बताना उचित नहीं है। क्योंकि प्रतिक्रमणादि आवश्यक का विधान तो 'अंते अहो-निसिस' कह कर दिन और रात के अन्त में' उभयकाल किया गया है। जबकि चैत्यवग्दन का विधान त्रिकाल है। अनुयोगद्वारसूत्र में भी लोकोत्तर आवश्यक का लक्षण बताते हुए इसके महत्त्व के सम्बन्ध में कहा है-जो साधु-साध्वी या श्रावक-श्राविका आवश्यकसूत्र और उसके अर्थ में एकाग्रचित्त रहते हैं, उसमें तन्मय हो जाते हैं, उसी लेश्या में तल्लीन व उसी के अर्थ में उपयोग वाले हो कर उसी में ही तीनों करणों को अपित कर देते हैं, एवं केवल उसी की भावना में ओत-प्रोत हो कर दोनों समय बावश्यक (प्रतिक्रमणादि) करते हैं; उनके उस आवश्यक को लोकोत्तर भाव-आवश्यक समझना।' इस भागम-बचन के अनुसार धावकों के लिए भी आवश्यक (प्रतिक्रमणादि) करने का विधान है । छह आवश्यक करने के बाद श्रावक स्वाध्याय करे अणुव्रत-विधि पर विचार करे, अथवा पंचपरमेष्ठीनमस्कारमंत्र की माला फेरे, अथवा पांच प्रकार का स्वाध्याय करके समय का सदुपयोग करे। स्वाध्याय के पांच प्रकार ये हैं-(१) वाचनाशास्त्र या अन्य पढ़ना, (२) पृच्छना=उसके विषय में प्रश्न पूछना, (२) पर्यटना=पड़ा हुआ ज्ञान विस्मृत न हो जाय, इस दृष्टि से बारबार उसे दोहराना-आवृत्ति करना; (४) अनुप्रेक्षा-सूक्ष्मपदार्थों के सम्बन्ध में परस्पर चर्चा करके नि:शंक बनना अथवा तदनुकूल चिन्तन-मनन करना; (५) धर्मकथा-शास्त्रीय विषयों पर धर्म-कथा या व्याख्यान अथवा प्रवचन कहना, सुनना।
यदि साधु-साध्वियों के उपाश्रय में व्याख्यान-उपदेश सुनने जाने की शक्ति न हो अथवा कोई राजा या महाऋद्धिमान श्रावक हो, या बाहर जाने में अड़चन या कठिनाई हो तो वह अपने घर में ही बावश्यक, स्वाध्याय बादि करे। यह उत्तम निबरा का कारणरूप है। कहा भी है कि 'श्रीजिनेश्वर'