________________
पांच समितियां, तीन गुप्तियां और ईर्यासमिति
६६
अर्थ
ईर्या-समिति, भाषा-समिति, एषणा-समिति, आदान-निक्षेप-समिति और उच्चारप्रस्रवणखेलजल्लसिंघाणपरिष्ठापनिका (उत्सर्ग) समिति ; ये पांच समितियां हैं और तीन योगों का निग्रह करने वाली गुप्ति है; जो मनोगुप्ति, वचनगुप्ति तथा कायगुप्ति के भेद से तोन प्रकार को कही है।
व्याख्या उपयुक्त पांच समितियां सम्यक् प्रवृत्तियां है। मन, वचन और काया के व्यापार का प्रवचन (आगम) विधि मे निरोध करने अर्थात् उन्मार्ग में जाते हुए मन, वचन और काया के योग को प्रवृत्ति रोकने को श्रीतीर्थकर भगवान् ने गुप्ति कहा है। अब ईर्यासमिति का लक्षण कहते हैं :
लोकातिवाहिते मार्गे चुम्बिते भास्वदंशुभिः । जन्तुरक्षार्थमालोक्य गतिरोर्या मता सताम् ॥३६॥
अर्थ जिस मार्ग पर लोगों का आना-जाना होता हो तथा जिस मार्ग पर सूर्य की किरणें पड़ती हों, जीवों की रक्षा के लिए ऐसे मार्ग पर नीचे दृष्टि रख कर साधु पुरुषों द्वारा की जाने वाली गति को ईर्यासमिति माना है।
व्याख्या त्रस और स्थावर जीवमात्र को अभयदान देने के लिए दीक्षित साधु का आवश्यक कार्य के लिए गमनागमन करते समय जीवों की रक्षा के लिए तथा अपने शरीर की रक्षा के लिए पैरों के अग्रभाग से ले कर घूसर-प्रमाण क्षेत्र तक दृष्टि रख कर चलना ईयासमिति कहलाता है. ईर्या का अर्थ है-चर्यागति और समिति का अर्थ है- सम्यग् प्रवृत्ति करना। अर्थात् गमन-क्रिया में सम्यक प्रवृत्ति करने को ईर्या-समिति कहते हैं । तात्पर्य यह है कि मुनि युगमात्र भूमि को देखते हुए बीज, हरियाली, जीव, जल, पृथ्वीकाय आदि जीवों को बचाते हुए जमीन पर चलते हैं। शक्ति हो तो भी उस मार्ग का संक्रमण करके नहीं चलते । गति मार्ग पर की जाती है, अतः उस मार्ग की ही विशेषता बताते हैं लोगों के आनेजाने से बहुत चालू और अविरत जिस मार्ग पर सूर्य की किरणे स्पर्श करती हों अर्थात् मार्ग भलीभांति दिखाई देता हो, उसी पर गमन करने का विधान है। प्रथम विशेषणोक्त मार्ग से आने-जाने वाले मुनि से षटकायिक जीव की विराधना नहीं होती। खराब मार्ग में भी नहीं जाना चाहिए, इसी हेतु से कहते हैं कि लोक-प्रचलित उक्त मार्ग पर भी रात को चलने से उड़ कर आये हुए संपातिम जीवो की विराधना होती है। अन्धकार में जीव-जंतुओं के पैर के नीचे आने से उनकी तथा किसी जहरीले जन्तु द्वारा अपनी भी हानि होने की संभावना है । अतः ऐसे मार्ग से चलने का निपंध करने हेतु दूसरे विशेषण में 'सूर्य की किरण में चलने' को कहा है, इस प्रकार के उपयोग वाले मुनि को चलते-चलते यदि जीव की विराधना हो भी जाय तो भी जीव-वध का पाप नहीं लगता । कहा है कि:
उच्चालियम्मि पाए इरियासमियस्स संकमाए । वावज्जेज कुलिंगी मरेज्ज वा तं जोगमासज्ज ॥१॥