________________
'पुरिमड्ढ' और एकासण-पच्चक्खाण के पाठ और उन पर विवेचन
३९३ रुक जाय । साड्ढपोरिसी अर्थात् डेढ़पोरसी का पच्चक्खाण के पाठ भी पोरसी पच्चक्खाण के समान है, फर्क सिर्फ इतना ही है कि पोरिसी के स्थान में साड्ढपोरिसी बोले ।
अब पुरिमड्ढ पच्चक्खाण का पाठ कहते हैं
सूरे उग्गए पुरिमड्ढं पच्चक्खाइ. पविहंपि आहारं असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अणत्पणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहवयणेणं, महत्तरागारेणं सब्यसमाहिवत्तिमागारण पोसिर।
पुरिमड्ढ (पुरिमार्ड') का अर्थ है-पूर्व तबधं च पूर्वार्टम यानी दिन के पहले आधे भाग (दो पहर) तक का प्रत्याख्यान (नियम) । प्राकृत में इसका रूप 'पुरिमड्ढ' बनता है । इसमें सात आगार है-छह आगारों का अर्थ पहले कहा जा चुका है । सातवां आगार 'महत्तरागार' है, जिसका अर्थ हैजो पच्चक्खाण अंगीकार किया है, उससे अधिक कर्मनिर्जरारूप महालाभ का कोई कारण आ जाय तो पच्चक्खाण का समय आने से पूर्व भी आहार कर लेने पर उसका प्रत्याख्यान भंग नहीं होता । जैसे कोई साधु बीमार हो अथवा उस पर या संघ पर कोई संकट बा गया हो, अथवा चैत्य, मन्दिर या संघ आदि का कोई खास काम हो, जो दूसरे से या दूसरे समय में नहीं हो सकता हो, इत्यादि महत्त्वपूर्ण (महत्तर) कारणों को ले कर 'महत्तरागारगं' मागार के अनुसार समय पूरा होने से पहले भी पच्चक्खाण पारा
ण किया जा सकता है। यह आगार नौकारसी. पोरसी आदि प्रत्याख्यानों में इसलिए नहीं बताया गया है कि ये प्रत्याख्यान तो बहुत थोड़े समय तक के हैं, जबकि इसका समय लम्बा है। अब एकासन (एकाशन) पच्चक्खाण का वर्णन करते हैं । इसमें भी आठ आगार हैं । इसका सूत्रपाठ इस प्रकार है
"एकासगं पच्चक्खाइ, चउम्विहंपि, तिविहंपि वा आहार असगं, पागं साइमं साइम, अन्नस्वणागामोगेणे, सहसागारेणं, सागारिमागारेणं, आउंटणपसारेणं, गुरु-अम्मवाणं, पारिवाणियागारेगे महत्तरागारगं, सबसमाहिवत्तिमागारगं वोसिरह।"
मैं एकासन का पच्चक्खाण करता हूं। एकासन (एकाशन) का अर्थ है-एक ही समय आहार करना, अथवा एक ही आसन पर या आसन से, गुदा का भाग चलायमान न हो, इस तरह बैठे-बैठे भाहार करना । एकाशन 'तिविहार' होता है तो आहार करने के बाद भी 'पानी' लिया जा सकता है, किन्तु चउविहार हो तो आहार के समय ही पानी लिया जा सकता है, बाद में नहीं । इसमें उक्त माठ बागारों में से पहले के दो और अन्तिम दो भागारों का अर्थ पहले बताया जा चुका है। बीच के चार मागारों का स्वरूप बताते हैं-'सागारिआगार'=ो भागार के सहित हो, उसे सागारिक कहते हैं, अपवा सागारी गृहस्थ को भी कहते हैं, उससे सम्बन्धित जो आगार हो, उसे भी सागारिकागार कहते हैं। इस मागार का तात्पर्य यह है-साधु का आचार है कि गृहस्थ की दृष्टि पड़े, वहाँ बैठ कर साधुसाध्वी को बाहार नहीं करना चाहिये ; क्योंकि ऐसा करने से जिनशासन की बदनामी (निन्दा) होती है। इसीलिए महर्षियों ने कहा-"षट्जीवनिकाय (प्राणिमात्र) पर दया करने वाले साधुसाध्वी माहार या निहार (मलमूत्रादि-निवारण) गृहस्थ के सम्मुख करें अथवा जुगुप्सित (घृणित) या निन्दित कुलों से बाहार-पानी ग्रहण करे तो इससे शासन (धर्मसंघ) की अपभ्राजना (बदनामी) होती है। ऐसा करने से उसे सम्यक्त्व (बोधि) प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है।" इसी कारण साधु का ऐसा आचार है कि साधु जहाँ बैठ कर माहार कर रहा हो, वहाँ यदि उस समय कोई गृहस्थ (भाई बहन) बा जाय और उसी समय
१
.