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बभिग्गह और विग्गई पच्चक्खाण के पाठ और उनकी व्याख्या दिवसरिम में केवल चार ही आगार हैं । अतः इसमें आगार (अपवाद= छूट) कम होने से यह पच्चक्खाण सफल ही है। यद्यपि साधुसाध्वियों के रात्रिभोजन का त्रिविध-त्रिविध (तीनकरण तीन योग) से बाजीवन त्याग होता है, और गृहस्थ के एकासन आदि का पच्चक्खाण भी दूसरे दिन सूर्योदय तक का होता है। (क्योंकि दिवस-शब्द का अर्थ दिन होता है, वैसे ही पूरी रात्रिसहित दिन यानी 'अहोरात्र' भी होता है। अर्थात् अहोरात्र शब्द भी दिवस का पर्यायवाची (समानार्थक) होता है ।) तथापि जिनके रात्रिभोजन का त्याग हो, उन साधु-श्रावकों को फिर से रात्रिभोजनत्यागरूप दिवसचरम प्रत्याख्यान पुनः उस पच्चक्खाण का स्मरण (याद) करा देता है, इसलिए सफल है । भवचरिमपच्खाण में सिर्फ दो आगार ही होते हैं । इसमें सर्वसमाधि-प्रत्ययरूप आगार और 'महत्तरागार' की जरूरत नहीं रहती ; सिर्फ अनाभोग और सहसाकार इन दो आगारों से भवचरिम-पच्चक्खाण हो जाता है। उपयोगशून्यता अथवा सहसा उंगली आदि मुह में डालना संभव होने से इस प्रत्याख्यान में ये दो आगार ही रखे गए हैं । क्योंकि चरम-प्रत्यास्यानकर्ता इन दोनों आगारों का सर्वथा त्याग नहीं कर सकता।
अब अभिग्रह प्रत्याख्यान का स्वरूप बताते हैं । किसी न किमी रूप में तपत्याग के अनुरूप कोई संकल्प या नियम करना, अभिग्रह कहलाता है। वह दण्ड का प्रमार्जन-प्रतिलेखन करने, उठने. देने मादि विविध नियमों के रूप में होता है। ऐसा कोई भी अभिग्रहयुक्त पच्चक्खाण करना अभिग्रह प्रत्यास्यान कहलाता है। इसमें चार आगार हैं। इसका सूत्रपाठ इस प्रकार है- 'अभिग्गहं पच्चक्बाइ, अणत्यणामोगणं, महत्तरागारेणं, सम्बसमाहिवत्तिागारेगं वोसिरह ।' इन पदों की व्याख्या पहले की जा चुकी है। इतना जरूर समझ लेना है कि यदि कोई साधु वस्त्रत्यागरूप अभिग्रह । प्रत्याख्यान करता है, तो उसके साथ 'चोलपट्टागारेणं' नामक पंचम आगार अवश्य बोले इस आगार के कारण यदि किसी गाढ़कारणवश वह चोलपट्टा धारण कर लेता है तो भी उसके इस पच्चक्खाण का अंग नहीं होता। अब विग्गइ-पच्चक्खाण का स्वरूप बताते हैं । इममें आठ या नौ आगार बताये गए हैं । इसका सूत्रपाठ इस प्रकार है
विग्गइमो पच्चक्खाइ, अण्णत्थणामोगेणं, सहगागारेगं, लेवालेवेणं, गिहत्यसंसलैंगं, उक्खितविवेगेणं. पच्चमक्खिएणं, परिवावणियागारेणं महत्तरागारेगं सम्बसमाहिवत्तिआगारेगं वोसिरह।"
अमुक खाद्य पदार्थ जो प्राय: मन में विकार पैदा करने में कारणभूत होते हैं, उन्हें जैन-परिभाषा में विग्गई (विकृतिक) कहा जाता है। इसके दस भेद हैं । वे इस प्रकार हैं-१-दूध, २-दहो, ३-घी, ४-मक्खन, ५-तेल, ६-मद्य, ८- मधु, 8-मांस और १०-तली हुई वस्तुएं । (१) दूध -गाय, भैंस बकरी, ऊंटनी और भेड़ इन पांचों का दूध विग्गई है। (२) ऊंटनी के दूध का दही नहीं बनता ; अत: इसे छोड़ कर शेष चारों का बही विग्गई है। (३-४) इसी प्रकार इन चारों का मक्खन
और घी विग्गई है । (५) तिल, अलसी, नारियल तथा सरसों (इसमें 'लाहा' भी शामिल है), इन चारों के तेल विग्गई में माने जाते हैं, अन्य तेल विग्गई में नहीं माने जाते ; वे केवल लेपकृत माने जाते हैं । (६) इक्षुरस या ताड़रस को उबाल कर बना हुआ नरम व सख्त दोनों प्रकार का गुड़ विग्गई है । (गुड़ के अन्तर्गत खांड, चीनी, बूरा, शक्कर, मिश्री तथा इनसे बनी हुई मिठाइयां भी विग्गई में मानी जाती हैं।) (७) मद्य-शराब (मदिरा) दो प्रकार की है। एक तो महुड़ा, गन्ना, ताड़ी आदि के रस से बनती है, उसे काष्ठजन्य मद्य कहते हैं ; दूसरा, माटे आदि को सड़ा-गला कर उसे बनाया जाता है ; उसे पिष्टजन्य कहते हैं। दोनों प्रकार का मद्य (शराब) महाविकृतिकारक होने से सर्वथा त्याज्य है।)