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सुभग को मुनि से नमस्कारमहामंत्र की प्राप्ति
२१५ शुभदर्शन से ही जीवन की उन्नति होती है, अथवा जनदर्शन को उन्नति करने वाले, को कितनी प्रशंसा करें?
व्याख्या अपने पर आमक्त परस्त्री के निकट रहने पर भी और सेवन करने की शक्ति या गुण होने पर भी जिसकी चित्तवृत्ति निष्कलंक रही, अर्थात् जिनका चित्त जरा भी मलिन नहीं हुआ, ऐसे शासन प्रभावक-शासन की उन्नति करने वाले, सुदर्शन महाश्रावक की हम कितनी स्तुति करें ? जितनी स्तुतिप्रशंसा करें उतनी ही थोडी है ?
शोल में सुदृढ़ सुदर्शन महाधवक का जीवन प्राचीन काल मे अंगदेश में अलकापुरी से भी बढ़कर चम्पापुरी थी। वहाँ कुबेर से बढ़कर समृद्ध दधिवाहन राजा राज्य करता था। उसके लावण्य में देवागनाओं को भी मात करने वाली, कला कुशल, अमगा नाम की पटरानी (महादेवी) थी। उसी नगरी में समस्त व्यापारियों में अग्रणी, श्रेष्ठकार्य-तत्पर ऋपभदास सेठ रहता था। उसके यथा नाम तथा गुणशाली, जैनधर्मोपासिका, शीलवती अहंददासी नाम की धर्मपत्नी थी। उनके यहाँ सुभग नाम का नौकर रहता था, जो उनकी गाय-भैंसे चरा लाता था। वह पशुओं को चराने के लिए जंगल में ले जाता और शाम को वापिस ले आता था। एक बार माघ का महीना था। साध्या समय जब वह पशुओं को चरा कर वन से वापिस आरहा था कि रास्ते में ही एक पेड़ के नीचे एक विनकुल निर्वस्त्र मुनि को कार्योत्सर्ग (ध्यान) करते हुए देखा । उसे यह
आश्चर्य हुआ-ऐसी ठडी रात में निर्वस्त्र होकर ठंठ के समान स्थिर होकर ये कायोत्सर्ग कर रहे हैं। सचमुच, इन महात्मा को धन्य है !' यों विचार करता हुआ वह घर आया । रात को फिर वह कोमलहृदय बालक उन महामुनि के विषय में चिन्तन करने लगा 'कहाँ तो मैं इतने वस्त्र ओढ़ कर सोता हं, और कहाँ वे महात्मा, जो ऐसे हिमपात के समय भी बिलकुल निवस्त्र हो कर रहते हैं । ठड की वेदना की भी उन्हें परवाह नहीं है।" सुबह भी के रात्रि चिन्तन के अनुसार पशुओं को ले कर वह वहीं पहुंचा, जहाँ मुनिराज कायोत्सर्ग में खड़े थे । भक्तिभाव से ओतप्रोत हो कर वह मुनि को नमस्कार करके उनकी सेवा में वहीं बैठ गया । साधारण सहृदय लोगों में सहज विवेक होता है । कुछ ही देर में पूर्वाचल से सूर्योदय हा, मानो वह भी श्रद्धापूर्वक ऐसे महामुनियों के दर्शनार्थ आया हो । मुनि ने कायोत्सर्ग (ध्यान) खोलते ही 'नमो अरिहताणं, शब्द का उच्चारण किया और सूर्य की तरह आकाश में उड़ गए । यह सुन कर सुभग ने विचार किया - निश्चय ही यह शब्द आकाशगामिनी विद्या का है।" इस दृष्टि से उसने नमस्कारमंत्र का प्रथमपद हृदय में धारण कर लिया। अत. सोते, जागते, उठते, बैठते, चलते, फिरते दिनरात, घर में या बाहर, मलिन वस्त्र, शरीर या झूठे हाथ आदि होने पर भी वह नमो अरिहंताण' पद का उच्चारण करने लगा। सच है, किसी वस्तु को एकाग्रतापूर्वक ग्रहण करने से वह तद्रूप हो ही जाता है। एक दिन सेठ ने उसके मुंह से यह शब्द सुन कर पूछा - भद्र ! जगत् में उत्कृष्ट प्रभावशाली इस पंचपरमेष्ठी मन्त्र का एक पद तुम्हें कहाँ से प्राप्त हो गया ? "सुभग ने सारी बात खोल कर कही। 'बहुत अच्छा ! यों कह कर सेठ ने उसे समझाया कि यह केवल बाकाशगामिनी विद्या ही नहीं है, अपितु यह स्वर्ग एवं अपवर्ग (मोक्ष) को प्राप्त कराने वाली भी है। तीनों लोकों में जो भी सर्वश्रेष्ठ सुन्दर या दुर्लभ वस्तु है, वह सब इसके प्रभाव से अनायास ही मिलती है। जैसे समुद्रजल की कोई मात्रा नहीं बता सकता, वैसे ही पचपरमेष्ठी-नमस्कार मंत्र के वैभव को कोई नाप नहीं सकता । तू बड़ा भाग्यशाली