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पांचवें (परिग्रहपरिमाण) व्रत के अतिचार और उनके लगने के कारण
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चतुष्पदप्रमाणातिक्रम नामक तीसरा अतिचार है । चौथा है— क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रम । क्षेत्र (खेत) तीन प्रकार का होता है - सेतु, केतु और उभय क्षेत्र । सेतुक्षेत्र उसे कहते हैं, जो खेत (खेती की जमीन) कुंआ, बावड़ी आदि जलाशय, रेंहट, कोश या पंप आदि द्वारा पानी खींच कर सींचा जाय और धान्य उगाया जाय । केतुक्षेत्र वह है - जिस खेत ( खेती की भूमि) में केवल बरसात के पानी से सिंचाई हो कर अनाज पैदा किया जाय । और उभय (सेतुकेतु) क्षेत्र उसे कहते हैं - जिस कृषिभूमि में पूर्वोक्त दोनों प्रकार से सिंचाई करके अन्न उत्पादन किया जाय। वास्तु कहते हैं— मकान को । इसका तात्पर्य खासतौर से रहने के मकान-घर से है । वास्तु तीन प्रकार का होता है - खात, उच्छ्रित और खातोच्छ्रित। जमीन के अन्दर (भूगर्भ में) जो मकान हो, वह तलघर खात कहलाता है । तथा जो घर, दूकान, हवेली आदि जमीन के ऊपर हो, वह उच्छ्रित कहलाता है, तलघर के ऊपर मकान बना हो यानी भूमिगृह और ऊपर का गृह दोनों नीचे ऊपर हों वह खातोच्छ्रित कहलाता है। इसी तरह बाग, बगीचा, नोहरा, अतिथिगृह, कार्यालय दूकान, राजा आदि के गांव या नगर; ये सब वास्तु के अन्तर्गत हैं। यानी खुली और ढकी हुई जमीन तथा जायदाद सब क्षेत्र वास्तु में शुमार हैं। इन दोनों की निश्चित की हुई संख्या का अतिक्रमण क्षेत्रवास्तु प्रमाणातिक्रम अतिचार है। पांचवां हिरण्य-सुवर्णप्रमाणातिक्रम नामक अतिचार है । हिरण्य का अर्थ - रजत (चांदी) है। सुवणं का अर्थ है - सोना चांदी और सोना या चांदी या सोने के बने हुए सिक्के, गहने आदि सब हिरण्य-सुवर्ण के अन्तर्गत है । इनकी जो मात्रा निश्चित की है, उसका अतिक्रम करनाहिरण्य - सुवर्णप्रमाणतिक्रमण है । इन पांवों में व्याकरण की दृष्टि से समाहार- द्वन्द्व समास है । इसलिए इन पांचों (जोड़ों) के विषय में व्रत लेते समय चौमासेभर के लिए या जिंदगीभर के लिए जितनी मात्रा, वजन, नाप, किस्म (प्रकार) या संख्या ( गिनती) निश्चित की हो, उस परिमाण का उल्लंघन करने से पांचवें व्रत का संख्यातिक्रम अतिचार लगता है ।
यहाँ शंका होती है कि व्रत में स्वीकृत की हुई मर्यादा ( सख्या या परिमाण) का उल्लंघन करने पर तो व्रत ही भंग हो जाता है, तब फिर इमे अतिचार कैसे कहा गया ? इसका समाधान आगे के श्लोक में करते हैं
बन्धनाद् भावतो गर्भाद्योजनाद् दानतस्तथा । प्रतिपन्नव्रतस्यैष पञ्चधाऽपि न युज्यते ॥६५॥
अर्थ - पहले कहे अनुसार जिसने पांचवां व्रत अंगीकार किया है, उसे बन्धन से, भाव से, गर्भ से, योजन से और दान की अपेक्षा से ये पांच अतिचार लगते हैं। जिन्हें सेवन करना व्रतधारी के लिए उचित नहीं है ।
व्याख्या - धन-धान्यादि परिग्रह की मर्यादा (संख्या) का प्रत्यक्ष उल्लंघन न करते हुए व्रतरक्षा की भावना रखता है, अपनी समझबूझ ( सद्बुद्धि या सदाशय) से जो यही मानता है कि मैं व्रतभंग नहीं कर रहा हूँ', उस व्रतधारी को बन्धन आदि पांच कारणों से पूर्वो तो तब होता, जब वह व्रतरक्षा की कोई भावना न रखता और न समझबूझ से मर्यादातिक्रमण करता । यानी व्रतरक्षा की परवाह न करते हुए जानबूझ कर मर्यादा- अतिक्रमण करता तो व्रतभंग निश्चित हो जाता । यहाँ तो बंधन आदि ५ कारणों से व्रतातिक्रम होता है । जैसे किसी अनाज के व्यापारी ने धन-धान्यपरिमाण नियत कर लिया, उसके बाद कोई कर्जदार अपने ऋण
पांच अतिचार लगते हैं । व्रतभंग ही व्रतभंग नहीं कर रहा हूँ, ऐसी