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भोगोपभोगपरिमाण नामक दूसर गुणवत के ५ अतिचारों पर विवेचन
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है तो सचित्तरूप में नहीं करता, अपितु अचित्त बना कर खाता है । जिसन सचित्त-आहार का त्याग किया हो, वह यदि सचित्तरूप में किसी चीज का भक्षण करता है तो उसे आंशिक व्रतभंग होने से प्रथम अतिचार लगता है। बशर्ते कि उसने अनजाने में, विना उपयोग के, जल्दबाजी में, सचित्त-भक्षण किया हो, अथवा खाने की इच्छा की हो या खाने का उपाय किया हो। सचित्तप्रतिबद्ध आहार का मतलब हैचीज तो अचित्त हो, लेकिन उसमें सचित्त वस्तु पड़ी हो ; जैसे आम आदि पक्के फल या खजूर, छहारा आदि मेवे अचित्त होते हैं, लेकिन बीच में गुठली, वीज आदि पड़े होते हैं ; उनमें अकुरित होने की शक्ति होती है, इसलिए वे सचित्त होते हैं । अतः सचित्त का त्यागी जब भी पक्के फल आदि खाता है, तब जिनमें गुठली या बीज आदि होते हैं, उन्हें निकाल कर या अग्नि या मसालों से संस्कारित करके अचित्त बना कर खाता है। अगर सचित्तत्यागी भूल से या उपयोगशून्यता से, अनजाने में या शीघ्रता से अथवा 'इनमें से बीज आदि निकाल कर खाऊंगा' ऐसा विचार करके सहसा खजूर, आम आदि पक्के फलों को मुंह में डाल लेता है तो सचित्तप्रतिबद्ध नामक दूसरा अतिचार लगता है। सम्मिथ आहार का मतलब है. अचित्त वस्तु के साथ कोई सचिन वस्तु मिली हो, जैसे गेहूं के आटे की रोटी बनी है, उसमें गेहूं के अखंड दाने पड़े हैं ; जो सचित्त हैं । अथवा अचित्त जो, या चावल आदि सचित्त तिल से मिश्रित हो, उसे सहसा खा ले तो सम्मिश्राहार नामक अतिचार लगता है। अथवा उबाले हुए पानी में कच्चा पानी मिश्रित हो, उसे सहसा पी ले तो यह अतिचार लगता है । अथवा कोई सचित्त खाद्य वस्तु पूरी तरह से अचित्त न हुई हो, उसे सेवन कर तो यह अतिचार लगता है। परन्तु अतिचार लगता तभी है, जब श्रावक अनजाने में, सहमा, उतावली में या विना उपयोग के सचित्त को अचित्त मान कर उसका सेवन करता है। व्रतसापेक्ष होने के कारण ही यह अतिचार माना जाता है। चौथा अतिचार है-अभिषवआहार । अभिषव का अर्थ है अनेक द्रव्यों को एकत्रित करके बनाया हुआ मादक पदार्थ । जैसे मदिरा, सौवीर, ताड़ी, शराब, दारू आदि सब चीजें अभिषव के अन्तर्गत हैं। इसी प्रकार वीर्य विकार की वृद्धि करने वाले पदार्थ, जैस-भाग, तम्बाकू, जर्दा, चड़स, गांजा, सुलफा आदि नशैली चीजें भी अभिषव में शुमार है। मांस, रक्त, चर्बी आदि जीवघातनिष्पन्न चीजें भी अभिपव हैं। इस तरह का अभिपवरूप सावद्य आहार यदि इरादे-पूर्वक खाता है तो व्रतभग हो जाता है और यदि बिना उपयोग के सहसा उपयुक्त पदार्थो को खा या पी लेता है तो वहां अभिषव-आहार नामक चौथा अतिचार लगता है। पांचवां अतिचार दुप्पक्वाहार है । इसका अर्थ है -जो खाद्य पदार्थ अभी तक पूरी तरह पका नहीं है। अथवा जो पदार्थ अधिक पक गया है, उसे खा लेना। कितनी ही चीजें ऐसी हैं जिन्हें अक्व और दुष्पक्व हालत में खाई जांय तो वे शरीर को नुकसान पहुचाती हैं, कई बार उनके खाने से शरीर में कई रोग पैदा हो जाते हैं; जितने अंश में वह सचित्त हो, उतने अश में खाने पर परलोक को भी विगाड़ता है । जैसे जो, चावल, गेहूं आदि अनाज बिना पके हुए या आधे पके हुए खाने से स्गस्थ्य बिगड़ता है । अर्धपक्व या अतिपक्व अचेतनवुद्धि से खाता है, तो पांचवाँ दुष्पक्वाहार नामक अतिचार लगता है। कई आचार्य अपक्वाहार को अतिचार मानते हैं ; परन्तु अपक्व का अर्थ अग्नि में न पका हुआ, होने से सचित्ताहार के अन्तर्गत उसका समावेश हो जाता है। कितने ही आचार्य तुच्छोषधिभक्षण नामक अतिवार मानते हैं। तुच्छ औषधियाँ (वनस्पतिया) वे हैं-जिनमें खाने का भाग बहुत ही कम होता है, फैकने का भाग ज्यादा होता है । जैसे-सजना, सीताफल आदि वनस्पतियाँ । किन्तु यदि वे सचित्त हों तो उनका समावेश प्रथम अतिचार में हो जाता है, और यदि वे अग्नि आदि से पक कर अचित्त हो गये हों तो उनके सेवन में क्या दोप