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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश कोहनी पेट के ऊपर स्थापन करने से योगमुद्रा होती है, जिनमुद्रा में दोनों चरणतलों के बीच में आगे के भाग में चार अंगुल और पीछे चार अंगुल का फासला रख कर दोनों पैर ममान रख कर खड़े होना तथा दोनों हाथ नीचे लम्बे लटकते रखना और दोनों हाथों की अगुलियां एक दूसरे के आमने सामने रखनी होती है और बीच में से हथेली खाली रख कर दोनों हाथ ललाट पर लगाना अथवा अन्य आचार्य के मतानुसार ललाट से थोड़े दूर रखने से मुक्ताशुक्तिमुद्रा होती है ।
इरियावहिय सूत्र का अर्थ इसके बाद ऐपिथिक-प्रतिक्रमणपूर्वक चंत्य वन्दन करना चाहिए । यहाँ ऐर्यापथिक सूत्र की व्याख्या करते हैं- इस सूत्र में 'इच्छामि पडिक्कमि" से ले कर 'तस्स मिच्छामि दुक्या' तक सम्पूर्ण सूत्र है, इसमें 'इच्छामि डिक्कमि इरियावहियाए विराहणाए अर्थात् जाने-आने में जिन जीवों की विराधना (पापक्रिया) हुई हो उससे निवृत्त होने की अभिलाषा करता हूं। इसका भावार्थ यह है कि ईर्याअर्थात् गमन करना, चलना, फिरना । उसके लिए जो मार्ग है, वह ईर्यापथ कहलाता है, उसमें जीवहिंसादि रूपविराधना.ईर्यापथ-विराधना है। उस पाप से पीछे हटना या बचना चाहता है। इस व्याख्या के अनुसार गमनागमन की विराधना से हुए पाप की शुद्धि के लिए ईर्यापथिक प्रतिक्रमण किया जाता है। किन्तु निद्रा से जागने के बाद अथवा अन्य कारणों से भी इरियावहिय पाठ बोला जाना है, इसलिए उसकी व्याख्या दूसरे प्रकार से करते हैं-ईर्यापथ अर्थात् साधु का आचार । यहाँ पर कहा है कि 'ईपियो मौन-ध्यानादिकं भिक्षुव्रतम्। अर्थात्-ईर्यापथ मोन, ध्यानव्रत आदि साधु का आचरण है। इस दृष्टि से ईर्यापथविर'धना का अर्थ हुआ - साधु के आचरण के उल्लंघनरूप कोई विराधना हुई हो तो उस पाप से पीछे हटने अथवा उसकी शुद्धि करना चाहता हूं। साधु के आचार का उल्लंघन करने का अर्थ है-प्राणियों के प्राण का वियोग करना, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य, परिग्रह इत्यादि अठारह पापस्थानों में से किसी भी पाप का लगना । इसमे प्राणातिपात का पाप सबसे बड़ा पाप है, शेष पापस्थानकों का उसी में ममावेश हो जाता है । ईर्यापथिक विराधना सम्बन्धी पाठ में प्राणातिपात-सम्बन्धी विराधना विस्तार से कही है । विराधना किस कारण से होती है ? इसे कहते हैं-'गमणागमणे' अथात् जाने या वापस आने के प्रयोजनवश बाहर जाना और प्रयोजन पूर्ण होने पर अपने स्थान पर आना, गमनागमन कहलाता है। इस गमनागमन के करने में कैसे-कैसे विराधना होती हे ? उसे कहते हैं-'पाणक्कमणे, बीयक्कमणे हरियक्कमणे' प्राण अर्थात् दीन्द्रिय से ले कर पंचेन्द्रिय तक सर्वजीवों को पैर से पीड़ा देना, प्राण का अतिक्रमण करना । तथा बीज अर्थात् सर्व-स्थावर एकन्द्रिय जीवों की विराधना की हो, 'हरियकमणे' =सर्वप्रकार की हरी वनस्पति जो सजीव होती है ; की विराधना की हो । तथा 'मोसा-उत्तिग-पणग-बग-मट्टी-मक्कडा-सताणा-संकमणे ।' ओस का जल, (यहां ओस का जल इसलिए ग्रहण किया है कि वह बहुत मूक्ष्म बिन्दुरूप होता है। उस सूक्ष्म अप्काय की भी विराधना नहीं होनी चाहिए) 'उत्तिग' अर्थात् गर्दभाकार जीव, जो जमीन में छिद्र बना कर रहते हैं अथवा कोडियों का नगर, 'पणग' अर्थात् पांच रंग की काई (लीलणपुलणसेवाल)। 'दगमट्टी' अर्थात् जहां लोगों का आना-जाना नहीं हुआ हो उस स्थान का कीचड़, अथवा 'बग' शब्द से सचित्त अपकाय का ग्रहण करना और मट्टी' शब्द से पृथ्वीकाय ग्रहण करना । 'मक्कडा' अर्थात् मकड़ी का समूह और संताण' अर्थात् उसका जाल संकमणे' अर्थात् उस पर आक्रमण विराधना की हो । इस प्रकार नामानुसार जीवों को कहां तक गिनाएँ ? अतः कहते हैं-'जे मे जीवा विराहिया' अर्थात् जिन किन्हीं जीवों की विराधना करके मैंने उन्हें दुःख दिया हो ; वे कौन से जीव ? 'एगिदिया' अर्थात् जिसके स्पर्शन्द्रिय का ही शरीर हो, वह एकेन्द्रिय जीव है, जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और