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वन्दन के ३२ दोषों पर विवेचन
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शारीरिक सेवा-वंदनादि के लिए उनकी आज्ञा ले कर उस अवग्रह में प्रवेश करना, यह प्रथम आज्ञा ले कर प्रवेश है, और बाद में फिर निकल कर दूसरी बार प्रवेश करे, यह एक निष्क्रमण (अवग्रह से बाहर निकलना है। पहले वंदन में 'आवस्सिाए' कह कर बाहर निष्क्रमण नहीं होता। इस तरह दो बार प्रवेश और एक निष्क्रमण मिला कर कुल पच्चीस आवश्यक वदन जानना ।
बन्दन के ३२ दोष-(१) अनाहत (२) स्तब्ध (३) अपविद्ध (४) परिपिण्डित (५) टोलगति (६) अंकुश (७) कच्छ-परिंगित () मत्स्योद्वर्तन (९) मन.प्रदुष्ट (१०) वेदिकाबद्ध (११) भय (१२) भजंत (१३) मैत्री (१०) गौरव (१५) करण (१६) स्तेन (१७) प्रत्यनीक (१८) रुष्ट (१९) तर्जना (२०) शठ (२१) हीलित (२२) विपरिकु चित (२३) दृष्टादृष्ट (२४) श्रृंग (२५) कर (२६) मुक्त (२७) आश्लिष्टानाश्लिष्ट (२८) न्यून (२९) उत्तरचूडा (३०) मूक (३१) ढड्डर और (३२) चूडलिदोष ; ये वन्दन के बत्तीस दोष हैं, जिन्हें त्याग कर विधिपूर्वक वंदन करना चाहिए।
व्याख्या-(१) अनावृतदोष-आदर-सत्कार के बिना शून्यचित्त से वंदना करना (२) स्तब्धदोष-आठ प्रकार के मद के वश हो कर वंदन करना (३) अपविद्यदोष अधूरे-अपूर्ण वन्दन करके भाग जाना, (४) परिपिण्डितदोष-ए. साथ सभी को इकट्ठा एक ही वदन करना अथवा दो हाथ पेट पर तथा दोनों पर इकट्ठे करके वंदन करना, या सूत्र-उच्चारण करने में अक्षर-संपदाओं के यथायोग्य स्थान पर रुके बिना एक साथ ही अस्पष्ट उच्चारण करना (५) टोलगति-टिड्डी की तरह फुदक फुदक कर अस्थिरता से वंदन करना (६) अंकुश-गुरुमहराज खड़े हों या सोये हों अथवा अन्य कार्य में लगे हों; उस समय उनका रजोहरण, चोलपट्टा, वस्त्र आदि हाथ से पकड़ कर अथवा अवज्ञा से हाथी पर अकुश लगाने की तरह खड़े हए गुरु को आसन पर बिठाना, और प्रयोजन पूर्ण होने पर या वन्दन करने के बाद आसन से उठाना । पूज्यपुरुषों के साथ इस प्रकार की खींचातानी करना योग्य नहीं है ; ऐसा करने से उनका अविनय होता है, अथवा रजोहरण पर अकुश के समान हाथ रख कर वन्दन करना अथवा अंकुश से पीड़ित हाथी के समान वन्दन करते हुए सिर हिलाना (७) कच्छपरिंगित खड़े-खड़े ही तित्तिसणयराए' इत्यादि सूत्र बोलना अथवा बैठे बैठे ही 'महोकायं काय' इत्यादि पाठ बोलना, वन्दन करते समय बिना कारण कछुए के समान आगे पीछे रेंग कर वंदन करना (८) मस्योद्वर्तन-मछली जैसे बल में एकदम नीचे जा कर फिर ऊपर उछल आती है, वैसे ही करवट बदल कर एकदम रेचकावतं करके उछल कर वंदन करे, अथवा वंदन करते समय उछल कर खड़ा होना, मानो गिर रहा हो, इस तरह से बैठ जाना, एकदम वन्दन करके मछली के समान करवट बदल कर दूसरे साधु के पास वन्दन करना (९) मनःप्रष्ट - गुरु महाराज ने शिष्य को कोई उपालम्भ दिया हो, इससे रुष्ट हो कर उनके प्रति मन में देष रख कर वन्दन करना, अथवा अपने से हीन, गुण वाले को मैं कैसे वन्दन करू'? 'या' ऐसे गुणहोन को क्यों वंदन किया जाए ? ऐसा विचार करते हुए वंदन करना (१०) वैविकावड-वंदन में बावर्त देते समय दोनों हाथ दोनों घुटनों के बीच में रहना चाहिए, उसके बदले दोनों हाथ घुटनों पर रखे, अथवा घुटनों के नीचे हाथ रखे, या गोद में हाथ रखे, दोनों घुटनों के बाहर अथवा बीच में हाथ रखे या एक घुटने पर हाथ रखे, और वंदन करे, इस तरह इसके पांच भेद हैं । (:१) भव-इन्हें वन्दन नहीं करूंगा तो संघ, समुदाय, गच्छ या क्षेत्र से बाहर या दूर कर देंगे; इस भय से वंदन करना (१२) मत-मैं वंदन आदि से इन्हें पुश करता हूं या सेवा करता हूं, इसलिए गुरु आदि भी मेरी सेवा करेंगे ; मेरे द्वारा सेवा करने से भविष्य में मेरी सेवा होगी ; ऐसा सोच कर अमानत रखने के समान