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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश
वन्दन करना (१३) मैत्री-इन आचार्य आदि के साथ मेरी मित्रता है, अतः यदि मैं इन्हें वंदन करूंगा तो उनके साथ सदा मित्रता बनी रहेगी, इस लिहाज से वन्दन करना ; (१४) गौरव-गुरुवन्दन आदि विधि में मैं कुशल हूं, ऐसा सोचकर आवत्तं आदि दूसरे को बताने के लिए सुन्दररूप में दे कर अभिमानपूर्वक वंदन करता । (१५) कारण-ज्ञानादि के कारण विना ही वस्त्र-पात्र आदि प्राप्ति के लोम से वंदन करना अथवा ज्ञानादि-गुण से जगत् में पूज्य बनू, इस आशय से ज्ञानप्राप्ति के लिए वंदन करना या बदनरूप मूल्य से वशीभूत गुरु महाराज मेरी प्रार्थना नहीं ठुकरायगे ; इस अभिप्राग से वन्दन करना, (१६) स्तेन- मैं दूसरे को वन्दन करूंगा तो छोटा पहला ऊँगा ; इसलिए चोर के समान छिप. कर बन्दन करना अर्थात् चोर के समान कोई न देखे, इस प्रकार जल्दी-जल्दी वंदन करना (१७) प्रत्यनीकगुरु महागज आहार आदि कार्य में व्यग्र हों, नब बन्दन करना, कहा भी है कि-'गुरुमहाराज व्यग्रचित्त हों, प्रमाद या निन्द्रा में हो, आहार-नीहार करते हो या करने की इच्छा हो, तब उन्हें वन्दन नहीं करना चाहिए।' (१८) रुष्ट-गुरु महाराज कोपायमान हों, तब बन्दन करना, अथवा स्वयं रुष्ट हो कर या ऋद्ध हो, उस समय वंदन करना (१६) तर्जना--'गुरुदेव ! आप वंदन न करने से न तो गुरसे होते हैं और न वन्दन करने से प्रसन्न ही होते हैं अथवा वंदन करने वाले और न करने वाले का अन्तर आप नहीं जानते, ओं बोल कर तजंना करना, अथवा आप बहुत-से लोगो के बीच मुझसे वदन करवा कर मुझे नीचा दिखाते हैं, मगर जब आप अकेले होंगे, तब आपको खबर पड़ेगी, यों अंगुली या मस्तक से ताना मार (नजन') करके अपमानपूर्वक वंदन करना (२०) शठ-कपट में गुरु को अथवा आम लोगों को दिखाना कि यह विनयवान भक्त या शिष्य है। इस प्रकार का उन पर प्रभाव डालना अथवा बीमारी आदि का बहाना बना कर अच्छी तरह वदन नही करना (२१) होलित -- 'गुरुजी ! वाचकवर्य !
आपको वंदन करने से मुझे क्या लाभ होगा? यों अपमान करते हुए वन्दन करना (२३) विपरिकुचित - बाधा वंदन कर बीच में देशकथादि दूसरी बाते करना आदि (२३) दृष्टादृष्ट - बहुतों की आड़ में म दिखाई दे ; अथवा अन्धेरा हो, तब वन्दन न करे, उस समय बैठा रहे, और जव गुरु देखें, तब वंदन करे ४) शृग-अहोकायं-काय इत्यादि आवतं बाल कर ललाट के मध्यभाग में स्पर्श करके मस्तक के
बांये शृगभाग में स्पर्श करते हुए वंदन करना (२५) कर-राजा को कर देने के समान श्रीअरिहन्त भगवान को भी कर देने के रूप में यह वदन करना पडता है. ऐसा मान कर वंदन करना (२) मलदीक्षा ले कर मैं राजादि के लौकिक कर स तो छूट गया, मगर इस वंदनरूप कर से नहीं छूट पाया, ऐसा मान कर बिना मन से वन्दन करना (२७) आश्लिष्टानाश्लिष्ट-अहोकायं काय इत्यादि बोल कर आवर्त करते समय रजोहरण, ललाट, दो हाथ एवं हथेली का स्पर्श करे ; रजोहरण का स्पर्श करे, परन्तु ललाट का स्पर्श न करे; या ललाट का स्पर्श करे, परन्तु रजोहरण का स्पश न करे अथवा दोनों का स्पर्श न करे । चारों में प्रथम भंग निर्दोष है और शेष तीन भगों से यह दोष लगता है। (२८) न्यून-सूत्र के अक्षरी का पूरा उच्चारण न करना, पच्चीस आवश्यक पूर्ण न करके वंदन करना (२६) उत्तरचूग वन्दन करने के बाद उच्चे स्वर से 'मत्वएण वंदामि' बोलना (:.) मूक - गूगे के समान समझ में न आए, इस तरह सूत्र का उच्चारण करके वंदन करना, मन म ही बाल कर वन्दन करना (३१) डढर-बहुत ही उच्चस्वर से बोल कर वंदन करना (३२) चूडलो बोष-जैसे जलती हुई लकड़ी की ल कर बालक घुमाता है, वैसे ही रजोहरण के सिर को पकड़ कर घुमाते हुए बन्दन करे, अथवा हाथ लम्बा करके मैं वन्दन करता हूं, यों बोलते हुए वन्दन करे अथवा हाथ घुमाते हुए सभी को वन्दन करना । इस प्रकार गुरु महाराज को वन्दन करते समय बत्तीस दोषों का त्याग कर विधिपूर्वक शुद्ध वन्दन करना चाहिए ।