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गुरु के प्रति संभावित अपराधों की ममायाचना-विधि पर व्याख्या
३८३ लगा हो तो वह मेरा पाप मिथ्या हो। इस प्रकार पाप का प्रतिक्रमण करता हूँ। मेरे लिए वह करने योग्य नहीं है, क्योंकि दुष्कर्तव्य है।
उसके बाद शिष्य आधे शरीर को नमा कर उत्तरोत्तर बढ़े हुए वैराग्य से सम्पन्न हो कर माया, अभिमान आदि से रहित हो कर अपने सभी अतिचारों की विशुद्धि के लिए, इस प्रकार का सूत्र बोले'सम्बस्सवि देवसि दुच्चितियं, दुम्मासिय, दुच्चिट्ठियं इच्छाकारेण सविसह ।' इसका अर्थ इस तरह से है= सम्बस्सवि देवसिय सारे दिन में अणुव्रत आदि सभी के विषय में नहीं करने योग्य के करने से
और करने योग्य के नहीं करने से जो अतिचार लगे हों, वे किस प्रकार से ? उसे कहते हैं-दुधितियं = मातरौद्रध्यानरूप दुष्टचिन्तन करने से, मानसिक अतिचार 'दुम्मासिय=पापकारी दुर्भाषण करने से वचन-विषयक अतिचार तथा 'दुच्चिट्ठियं' निषिद्ध या दुष्ट चेष्टाएँ (दौड़ना, कूदना इत्यादि कागिक क्रियाएं करने से लगे हुए कायिक अतिचार। उन अतिचारों का प्रतिक्रमण करने के हेतु कहते हैं - 'इच्छाकारण संदिसह (भगवं) अर्थात् भगवन् ! किसी के दबाव या जोरजबर्दस्ती से नहीं, किन्तु अपनी इच्छा से मुझे प्रतिक्रमण करना - (दोष से पीछे हटना) है, उसके लिए अनुमति दें, यों कहकर शिष्य मौनपूर्वक गुरु के सम्मुख खड़ा रह कर उत्तर की प्रतीक्षा करे । जब गुरु परिक्कमह' 'प्रतिक्रमण करो, कहें तत्र शिष्य बोले 'इच्छ'= मुझे आपकी आज्ञा प्रमाण है। तस्स मिच्छामि दुक्क = उपयुक्त समस्त अतिचाररूप मेरा पाप मिथ्या हो । अर्थात् मैं इन दोषों या अपराधों से जुगुप्सा करता हूं। इसके बाद वित्त सूत्र बोला जाता है, उसमें अतिचार का विस्तार से प्रतिक्रमण है । इसके बाद गुरु-सम्बन्धी जो देवसिक अतिचार लगे हों, उन अपराधों की क्षमायाचना के लिए दो बार वंदनपाठ बोले । तदन्तर अवग्रह में खड़े-खड़े आधा शरीर नमा कर शिष्य अपने अपराधों की क्षमायाचना के लिए गुरु से इस प्रकार निवेदन करेइच्छाकारेण संविसह' = भगवन् ! मेरी अपनी इच्छा है, मुझे आज्ञा दें। किस बात की आज्ञा ? उसे कहते हैं --'अम्भुट्ठिोऽहं अग्मितर-देवसि खामेमि' अर्थात् आपके प्रति दिन में मेरे द्वारा अपराध हुए हों, उनकी क्षमा मांगने के लिए, अन्य इच्छाओं को छोड़ कर क्षमायाचना करने के लिए तत्पर बना हूं । किसकी क्षमायाचना करनी है? उसे कहते हैं - 'अग्भितरदेवसियं-दिन में जो अतिचार लगने की संभावना हुई हो; उनके लिए खामि' =मैं क्षमायाचना करता हूं। यहाँ पर अतिचार का अध्याहार जानना । अन्य आचार्य इस स्थान पर दूसरा पाठ बोलते हैं- "इच्छामि समासमणो' ! अन्म रिठमोमि अमितर-देवसिखामे" यहाँ 'इच्छामि' आदि का अर्थ है-क्षमायाचना की इच्छा करता हूं । हे क्षमाश्रमण ! केवल क्षमायाचना की इच्छा ही नहीं करता; परन्तु मैं क्षमा मांगने के लिए आपके समीप उपस्थित हुआ हूं, ऐसा कह कर मौनपूर्वक गुरु के आदेश की प्रतीक्षा करे। जब गुरु कहें-'खामेउ' =क्षमा मांगो ; तब गुरुमहाराज के वचन को आदरपूर्वक शिरोधार्य करते हुए कहे कि - 'इन्छ साममि' =आपकी आज्ञा स्वीकार कर अपने अपराध को खमाता हूँ। यहाँ से क्षमायाचना की क्रिया प्रारंभ करते हैं, इसके बाद विधिपूर्वक दो हाथ, दो घुटने और मस्तक को जमीन पर लगा कर और मुहपत्ती को मुंह के पास रख कर इस प्रकार पाठ बोले
" किंचि अपत्ति परपत्तिमं, भत्ते, पाणे, विणए यावच्चे, मालावे, संलावे, उच्चासणे, समासणे, अन्तरमासाए उरिमासाए, किषि मन्ना विणपारी सुहुमं या बायरं वा, तुम्मे जाणह, महं न जागामि, तस्स मिच्छामि तुक्कर।"
सूत्र-व्याल्या-किचि'-जो कोई सामान्य-सहज 'अपत्ति'=अल्प बप्रीतिरूप और