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प्रतिक्रमण का अर्थ, प्रकार और विवेचन करने योग्य गुरुवर्ग की सेवा और पूजा तीर्थकर की आज्ञा श्रुतधर्म की आराधना और क्रिया के समान समझना चाहिए।
अब प्रतिक्रमण कहते हैं- इसमें 'प्रति' उपसर्ग है, जिसका अर्थ है-विपरीत अथवा प्रतिकूल । और 'क्रम' धातु है। इसका अर्थ है-पादविक्षेप-पर-स्थापन करना । प्रति उपसर्गपूर्वक क्रम धातु के साथ भाव अर्थ में अनट् प्रत्यय लगने से 'प्रतिक्रमण' शब्द बना है। प्रतिक्रमण का भावार्थ है-शुभयोग से अशुभयोग में गये हुए आत्मा का फिर से शुभयोग में वापिस लौट आना । कहा भी है-'प्रमादवश हुमा मात्मा अपने स्थान से परस्थान में अर्थात् स्वभाव से विभावदशा में गया हो, उसका फिर लौट कर स्वस्थान में आ जाना प्रतिक्रमण कहलाता है । प्रति का विपरीत अर्थ करके व्याख्या करते हैं-क्षायोपशमिक भाव में से औदयिक भाव के वश हुआ आत्मा. फिर प्रतिकूल गमन करे, अर्थात् क्षयोपशमिक भाव में वापिस लौट आए, तो उसे भी प्रतिक्रमण कहते हैं। यह तो ऊपर की तरह ही अर्थ हुआ। एक अर्थ यह भी हो सकता है -- प्रति प्रति क्रम-प्रतिक्रमणम् =यानी मोक्षफलदायक, शुभयोग के प्रति (शुभयोग की ओर) क्रमण -गमन प्रतिक्रमण है। कहा है 'मायाशल्य आदि सर्वशल्यों से रहित साधु को मोक्षफल देने वाला और शुभयोग की ओर ले जाने (व्यवहार कराने वाला प्रतिक्रमण कहलाता है। यह प्रतिक्रमण भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों कालों के पापकर्मों के सम्बन्ध में होता है। यहाँ शंका करते हैं कि प्रतिक्रमण तो भूतकालविषयक ही होता है। कहा है कि'भूतकाल के किए हुए पापों का प्रतिक्रमण करता हूं वर्तमान काल के पापों का संवर करता (रोकता) हूं और भविष्यकाल के पापों का पच्चक्खाण करता हूं।' इसमें भूतकाल का प्रतिक्रमण ही कहा है, तो फिर तीनों कालों का प्रतिक्रमण कैसे होता है ? इसका उत्तर देते हैं-'प्रतिक्रमण' शब्द का अर्थ 'अशुभयोग से निवृत्त हो (रुक) जाना', इतना ही समझना चाहिए । यह भी तो कहा है-जैसे मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण है, वैसे असंयम का प्रतिक्रमण, कषाय का प्रतिक्रमण, प्रमाद का प्रतिक्रमण और अप्रशस्त (खराब) योग का प्रतिक्रमण भी है। निष्कर्ष यह है कि इन पांचों से रुकना प्रतिक्रमण कहलाता है। इसमें निंदा द्वारा अशुभयोग से निवृत्तिरूप भूतकाल-सम्बन्धी प्रतिक्रमण, संवर द्वारा वर्तमान अशुभयोग से निवृत्तिरूप वर्तमानकाल का प्रतिक्रमण और पच्चक्खाण से भविष्यकाल-सम्बन्धी अशुभयोग से निवृत्तिरूप प्रतिक्रमण है। इस तरह तीनों काल-सम्बन्धी अशुभयोग से निवृत्तिरूप त्रिकाल-प्रतिक्रमण होने में कोई आपत्ति नहीं है । फिर यह प्रतिक्रमण देवसिक मादि भेद से पांच प्रकार का है । जो दिन के अन्त में किया जाय, वह देवसिक ; रात के अन्त में किया जाय ; वह रात्रिक, पक्ष के अन्त में किया जाय, वह पाक्षिक, वो चार मास के अन्त में किया जाय, वह चातुर्मासिक और संवत्सर-(वर्ष) के अन्त में किया जाय, बह सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कहलाता है। पुनः यह प्रतिक्रमण दो प्रकार का है - ध्रुव और अघ्र । भरत और ऐरावत क्षेत्रों में प्रथम और अन्तिम तीथंकरों के तीर्थ में ध्रुवरूप है; नित्य-अपराध हुए हों चाहे न हुए हों, फिर भी सुबह-शाम उभयकाल प्रतिक्रमण करना लाजमी होता है और बीच के २२ तीर्थंकरों के तीर्थ में एवं महाविदेहक्षेत्र में कारणवश अर्थात् दोष लगे हों तभी, प्रतिक्रमण किया जाता है, अत: वह अध्रुव है । इसी बात को कहा है-'प्रथम और अन्तिम जिनेश्वर का धर्म सप्रतिक्रमण है; अर्थात् उनके शासन में साधुसाध्वियों के लिए दोनों समय प्रतिक्रमण करना आवश्यक है, और बीच के २२ तीर्थंकरों के तीर्थ में कारणवश (दोष लगे तभी) प्रतिक्रमण करना होता है।' प्रतिक्रमण की विधि पूर्वाचार्यों ने बताई है ; वह गाथाओं के अनुसार जानना । हम यहां सिर्फ उनका अर्थ दे रहे हैं
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