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धर्मार्थी साधक द्वारा की जाने वाली प्रार्थना एवं उस पर विवेचन
३६६ करता हूं ॥४॥ चार, आठ, दस और दो इस प्रकार चौबीस जिनवर, जिन्होंने परमार्थ से अपना लक्ष्य (मोक्षसुख) सिद्ध (प्राप्त) कर लिया है, वे सिद्ध भगवन्त मुझे सिद्धि प्रदान करें ॥५॥
ऐसा कहने के बाद, संचित-पुण्य-पुंज वाले धावक उचित कार्यों में उचित प्रवृत्ति करते हैं, यह बताने के लिए. निम्नोक्त पाठ बोलना चाहिए - वेयावच्चगराणं, संतिगराणं सम्मविद्विसमाहिगराणं करेमि कारस्सगं' अर्थात् 'श्री जनशासन की सेवा-रक्षारूप वैयावृत्य करने में तत्पर गोमुखयक्ष, अप्रतिचक्रा, चक्रेश्वरी देवी, यक्ष-यक्षिणी आदि सर्वलोक में शान्ति करने वाले, सम्यग्दृष्टि जीवों को समाधि में सहायता करने वाले, समस्त सम्यग्दृष्टि-शासनदेवों के निमित्त से काउस्सग करता हूं।' यहां सप्तमी विभक्ति के अर्थ में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग हुआ है । इसके बाद 'वंदण-पतिमाए' आदि नहीं बोल कर 'अन्नत्य सूत्र' बोलना चाहिए ; क्योंकि देव अविरति होते है, उनको वंदन-पूजन आदि करना योग्य नहीं है। इम प्रकार करने से ही उनके भावों में वृद्धि हो जाती है और वे स्मरणकर्ता के लिए उपकार-दर्शक बनते हैं। अन्नत्थ सूत्र की व्याख्या पहले की जा चुकी है। वहीं से समझ लेना। यहां केवल वेयावच्च करने वाले देवों की स्तुति करना। बाद में उसी विधि से नीचे बैठ कर पूर्ववत् 'पणिपातदण्डक(नमुत्थुणं) सूत्र कह कर मुक्ताशक्तिमुद्रापूर्वक प्रणिधान - प्रार्थनासूत्र बोले । वह इस प्रकार है
जय वीयराय ! जगगुरु ! होउ ममं तह प्रभावमो भयवं! भवनिव्वेमओ, मग्गाणुसारिमा इफलसिद्धी ॥१॥ लोगविल्सच्चामो, गुरुजणपूबा परत्यकरणं ।
सुहगुरुजोगो पणसवा मामबमखंग ॥२॥ 'हे वीतराग ! हे जगद्गुरु ! आपकी जय हो। भगवन् ! आपके प्रताप से मुझे संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न हो, मोक्षमार्ग पर चलने की शक्ति प्राप्त हो और इष्टफल की सिद्धि हो ॥१॥ प्रभो ! निन्दाजनक, लोकविरुद्ध किसी भी कार्य में मेरी प्रवृत्ति न हो, धर्माचार्य तथा में माता-पिता आदि बड़ों के प्रति परिपूर्णरूप से आदरभाव और दूसरों का भला करने में तत्पर बनू, और प्रभो ! मुझे सद्गुरु का योग मिले तथा उनकी आज्ञानुसार चलने की शक्ति प्राप्त हो। यह सब जहां तक मुझे संसार में परिभ्रमण करना पड़े, वहाँ तक अखण्डरूप से प्राप्त हो ॥२॥
जय बोयराय ! जगगुरु ! अर्थात् हे वीतराग ! हे जगद्गुरो ! आपकी जय हो, इस प्रकार भगवान श्रीत्रिलोकनाथ को बुद्धि में स्थापित करने के लिए आमंत्रण किया है, होउ मम मुझे मिले, तह पभावमोआप के प्रभाव से--सामर्थ्य से, भयभगवन् ! दूसरी बार यह संबोधन दे कर अपनी भक्ति का अतिशय प्रगट किया गया है। क्या मिले? उपके लिए कहते हैं-'भवनिम्बेमो' अर्थात् जन्म-मरण आदि दुःखरूप संसार से निवेद-विरक्ति (वैराग्य)। भव से डरे बिना कोई भी मोक्ष के लिए प्रयत्न नहीं करता । संसार में राग रख कर मोक्षमार्ग का प्रयत्न करे, तो वह वास्तविक प्रयत्न नहीं समझा जाता; क्योंकि वह क्रिया जड़ के समान है । तथा 'मग्गाणुसारिया' अर्थात् दुराग्रह का त्याग कर तत्त्वभूत सत्य मार्ग के अनुसार तथा 'इट्ठफलसिडी' =ईष्टफलसिद्धि। इस भव के इष्ट प्रयोजन की प्राप्ति होने से चित्त में स्वस्थता होती है और वह व्यक्ति आत्मकल्याण के कार्यों में प्रवृत्ति कर सकता है। इस आशय से इस लोक के इष्टफल की सिद्धि के लिए प्रार्थना करना अनुचित नहीं है 'लोगविण्यचाबों' सभी लोगों में निन्दा मादि हो ; ऐसे लोकविरुद्ध कार्य का त्याग करना। पंचाशक में कहा है-'किसी की भी निन्दा