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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश
अर्थात् श्री वर्भमान स्वामी को आदरपूर्वक किया हुआ एक बार भी नमस्कार । इस नमस्कार से क्या होता है ? 'संसार सागरायो तारेई' अर्थात् तियंच, नारक, मनुष्य और देवरूप जीवों का परिभ्रमण-संसरण ही संसार है, इस संसार में भवस्थिति एवं काय-स्थिति आदि अनेक प्रकार की अवस्था होने से समुद्र के समान उसका पार करना बड़ा कठिन होता है । अतः संसार ही सागर है. इस संसार-सागर से तार देता है- पार उतार देता है । किसको ? नरं व नारी बा' अर्थात् पुरुष अथवा स्त्री को। जैनधर्म में पुरुष की प्रधानता बताने के लिए पहले पुरुष के लिए कहा है, और स्त्रियों को भी उसी भव में तारते हैं, अथवा कर्मक्षय करके संसारसमुद्र को पार करके वे भी मोक्ष में जा सकती हैं, यह बताने के लिए 'नारी वा' शब्द ग्रहण किया है । दिगम्बरजन सम्प्रदाय में यापनीय तंत्र (संघ) नामक एक उपसम्प्रदाय है, जो स्त्री को मुक्ति मानता है वहां प्रश्न उठाये गये हैं, क्या स्त्री स्वयं अजीव है ? ऐसा नहीं है । तो फिर क्या वह अभव्य है ? ऐसा भी नहीं है। उसको सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता ? ऐसा भी नहीं है । मनुष्य नहीं है ? ऐसा भी नहीं है। क्या अनार्यरूप में ही उत्पन्न होती है ? ऐसा भी एकान्त नहीं है । असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाली युगलिनी ही है ? एकान्त ऐसा भी नहीं है। क्या अतिक्रू रबुद्धि वाली ही है ? ऐसा भी नहीं है । अशुद्ध शरीर वाली ही है ? सर्वथा ऐसा भी नहीं है। क्या वजऋषभनाराच संघयण वाली नहीं होती ? ऐसा भी पूर्णतया नहीं है। स्त्री धर्मप्रवृत्ति से रहित नहीं है, अपूर्वकरण गुणस्थानक की विरोधिनी नहीं हैं, अर्थात् वह स्वयं अपूर्वकरण वाली ही होती है, स्त्री में सर्वविरतिरूप छठे गुणस्थानक से चौदहवें गुणस्थानक तक होता है, नौवें गुणस्थान तक ही रहती है, ऐसा भी नहीं है वह ज्ञानादिलन्धिगुण प्राप्त करने में अयोग्य है, ऐसा भी नहीं है। तथा एकान्ततः अकल्याणपथगामिनी है ; ऐसा भी नहीं है, तो फिर स्त्रियां उत्तमधर्म (मोक्ष) की साधना नहीं कर सकती ; ऐसा क्योंकर कहा जा सकता है ? मतलब यह है कि स्त्रियां भी मोक्षमार्ग की साधना कर सकती हैं, और इसी भव में मोक्ष प्राप्त कर सकती हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि 'सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के बाद उत्तमभाव से किया हुया एक बार का नमस्कार ही संसारसागर से पार उतारने वाला है। जो भी स्त्री या पुरुष ऐसा उत्तम अध्यवसाय प्रगट करता है: वह उस अध्यवसाय से क्षपकश्रेणी प्राप्त कर संसारसमद से पार हो जाता है। इस तरह मोक्ष प्राप्त कराने वाले अध्यवसाय में नमस्कार कारणरूप है। फिर भी उपचार से कारण को कार्यरूप में मान कर नमस्कार को ही संसार से पार उतारने वाला कहा। यहाँ प्रश्न होता है कि नमस्कार से ही मोक्ष मिल जाता है तो फिर चारित्रपालन का क्या कोई फल नहीं है ? उत्तर में कहते है-ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि नमस्कार से प्राप्त होने वाला मोक्षप्रापक अध्यवसाय ही निश्चय-चरित्र है। 'सिवाणं खाणं' सूत्र की तीन गाथा गणधरकृत होने से नियमितरूप से बोली जाती है, कितने ही साधक इसके अतिरिक्त इसके बाद दो गाथाएं और बोलते हैं। वे इस प्रकार हैं
उचितसेलसिहरे, विक्खा नाणं निसीहिया अस्स । तं धम्मचक्कट्टि, अरिठ्नेमि नमसामि ॥४॥ बत्तारि बढ़ बस दोम विमा जिनवरा पउबीसं ।
५ भनिदिमट्ठा, सिडा सिदि मम विसंतु ॥५॥ उज्जयंत शेल अर्थात गिरनार (रैवतकगिरि) पर्वत के शिखर पर जिनके दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण-कल्याणक हुए हैं, उन धर्म-चक्रवर्ती श्री अरिष्टनेमि–नेमिनाथ भगवान् को मैं नमस्कार