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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश
'नमो तथा सम्वसिद्धाणं' अर्थात् जिनके सर्वसाध्य सिद्ध हो गए हैं, अथवा जो तीर्थसिद्ध आदि अलग-अलग रूप में सिद्ध हुए हैं, उन सर्वसिद्धों को मैं सदैव नमस्कार करता हूँ। सिद्ध (परमात्मा ) के १५ प्रकार ये हैं- ( १ ) तीर्थसिद्ध, (२) अतीर्थसिद्ध, (३) तीर्थंकर सिद्ध, (४) अतीर्थंकर - सिद्ध, (५) स्वयं बुद्धसिद्ध, (६) प्रत्येकबुद्धसिद्ध, (७) बुद्धबोधितसिद्ध, (८) स्त्रीलिंग मिद्ध, (६) पुरुषलिंगसिद्ध, (१०) नपुंसकलिंग - सिद्ध, (११) स्वलिंग- सिद्ध, (१२) अन्यलिंग - सिद्ध, (१३) गृहस्थलंग-सिद्ध, (१४) एक सिद्ध और (१५) अनेक सिद्ध ।
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वर्तमानकाल में रहे ही, साधुवेश को प्राप्त कर नियम से देवता साधुवेश
(१) तीर्थसिद्ध - तीर्थचतुविध श्रमण (साधु) संघ में रहते हुए जो सिद्ध हुआ हो, वह तीर्थसिद्ध है । (२) तीर्थ का विच्छेद हो गया हो अथवा तीर्थ के बीच का अन्तरकाल हो, जब साघुसंस्था का विच्छेद हो गया हो, तब जातिस्मरण आदि ज्ञान के योग से साधना करके मुक्त हुआ हो, अथवा मरुदेवी माना की तरह तीर्थ स्थापना होने से पहले ही सिद्ध हो जाए अथवा अन्य तीर्थ में भी ज्ञानादि रत्नत्रय की साधना करके मुक्त हो जाय, वह अतीर्थसिद्ध कहलाता है । ( ३ ) तीर्थंकर-पद प्राप्त करके सिद्ध हुए भगवान् तीर्थंकरसिद्ध कहलाते हैं। शेष सामान्य केवली हो कर जो सिद्ध हुए हों, वे सभी अतीर्थंकरसिद्ध हैं । (५) अपने आप बोध (ज्ञान) प्राप्त करके सिद्ध हुए हों, वे स्वयबुद्धसिद्ध हैं । (५) जो प्रत्येकबुद्ध हो कर सिद्ध हुए हों, वे प्रत्येकबुद्धसिद्ध हैं । स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध मे बोध - (ज्ञान) की प्राप्ति में, उपधि में, श्रुतज्ञान में और वेष में परस्पर अन्तर होता है । स्वयबुद्ध किसी बाह्य निमित्त या उपदेश के बिना ही बांधित होता है, और प्रत्येकबुद्ध जैसे करकंडु राजा को बैल की वृद्धावस्था देख कर बोध हुआ था, वैसे किसी न किसी बाह्य निमित्त से विरक्तिजनक बोध होता है । स्वयं बुद्ध पात्र आदि बारह प्रकार की उपधि ( धर्मोपकरण) रखता है, जबकि प्रत्येक बुद्ध तीन प्रकार के वस्त्र छोड़ कर शेष नो प्रकार की उपधि रखता है । स्वयबुद्ध को पूर्वजन्म में पढ़े हुए पूर्वो का ज्ञान ऐसा नियम नही । जबकि प्रत्येकबुद्ध को वह ज्ञान अवश्य रहता है। स्वयंबुद्ध गुरुमहाराज के सानिध्य में भी दीक्षा ग्रहण करता है, जबकि प्रत्येकबुद्ध को देता है, इस प्रकार से इन दोनों में अन्तर है (७) ज्ञानी आचार्य आदि के उपदेश से बोघ प्राप्त करें और मुक्त हों, वे बुद्धबोधितसिद्ध कहलाते हैं । (८) और इन सभी प्रकार से कितनी ही स्त्री रूप में सिद्ध होती हैं, वे स्त्रीलिगसिद्ध कहलाते है । ( ६ ) पुरुषरूप में जो मुक्त होते हैं, वे पुरुषलिंगसिद्ध होते हैं । (१०) नपुंसक रूप में जो मोक्ष प्राप्त करते हैं, वे नपुंसकलिंगसिद्ध होते हैं । यहाँ शंका होती है कि 'क्या तीर्थंकर भी स्त्रीलिंग में सिद्ध हो सकते हैं ? इसका उत्तर देते है कि 'हाँ हो सकते हैं; सिद्धपाहुड ( सिद्धप्राभृत) में बताया है कि 'सबसे कम स्त्रीलिंग तीर्थकर सिद्ध होते स्त्रीतीर्थंकर के शासन में अतीर्थंकरसिद्ध असंख्यातगुने होते हैं, उनसे स्त्री तीर्थंकर के तीर्थ में अतीथंकर स्त्रीस्वरूप में सिद्ध असंख्यातगुने हैं और इनसे तीर्थंकर के तीर्थ में अतीर्थंकरसिद्ध संख्यातगुने होते हैं अर्थात् तीर्थंकर भी स्त्रियों में सिद्ध होते हैं और उनके तीर्थ में सामान्य केवली अतीर्थंकर और स्त्रीरूप में अतीर्थकर आदि भी सिद्ध होते हैं । परन्तु उन दोनों में अतीर्थंकर सिद्धों की संख्या अधिक होती है, यानी असंख्यातगुनी ज्यादा होती हैं । तीर्थंकरसिद्ध नपुंसकलिंग में नहीं होते हैं तथा प्रत्येकबुद्धसिद्ध पुरुषलिंग में ही होते हैं । (११) रजोहरण ( ओघा) आदि द्रव्यलिंगरूप स्वलिंग में सिद्ध होते हैं, वे स्वलिंगसिद्ध कहलाते हैं । मुक्त होते हैं; वे अन्यलिंगसिद्ध हैं । (१३) महसिद्ध होते हैं । (१४) एक समय में एक ही सिद्ध १०८ सिद्ध हुए हों, वहाँ अनेकसिद्ध कहलाते हैं ।
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(१२) परिव्राजक आदि अन्यलिंग - ( वेश) में सिद्ध देवी आदि गृहस्थलिंग में सिद्ध हुए हैं, वे गृहस्थलग हो, वहाँ एकसिद्ध और (१५) एक समय में उत्कृष्ट