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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश जैसे दीपक स्वयं अदृष्ट रहे और दूसरे पदार्थ को बताए, ऐसा हो नहीं सकता। वस्तुतः दीपक जैसे अपना और दूसरे पदार्थ का, दोनों का ज्ञान कराता है। वैसे ज्ञान भी स्वय का और अन्य का यानी स्व और पर का ज्ञान कराता है। जैसे इन्द्रियां देखतो नहीं हैं, फिर भी पदार्थ का ज्ञान कराती हैं, उसी तरह ज्ञान परोक्ष होने पर भी पदार्थ का ज्ञान करा सकता है ; क्योंकि पदार्थज्ञान कराने वाली, जो इन्द्रियां हैं, वे तो भावरूप हैं और भावेन्द्रिय ज्ञानरूप होने से आत्मा को प्रत्यक्ष है। कहा है कि-- 'अप्रत्यक्षोपलब्धस्य नार्यदृष्टिः प्रसिद्ध यति' अर्थात् जिस ज्ञान की प्रत्यक्ष प्राप्ति नहीं होती, उससे पदार्थ का ज्ञान भी नही होता है । इस तरह भगवान् में बुद्धत्व भी सिद्ध होता है, और पग्बोधकर्तृत्व (दूसरे को बोध कराना) भी। अतः भगवान् बोधक भी हैं। 'जगत्-कर्ता ब्रह्म मे लीन हो जाना ही मुक्ति हैं' ; ऐसा मानने वाले संतपन के शिष्य तीर्थकर को भी वास्तव में मुक्त नही मानते ; वे कहते हैं कि 'ब्रह्मवद ब्रह्मसंगतानां स्थितिः' अर्थात् जैसी ब्रह्म की स्थिति है, वैसी ही ब्रह्म में मिलने वालों की स्थिति हो जाती है।' उनके मत का खडन करते हुए कहते हैं - मुत्ताणं मोयगाणं अर्थात् 'कर्मबन्धन से स्वयं मुक्त हुए और दूसरे को मुक्त कराने वाले भगवान् को नमस्कार हो। जिस कर्म का फल चार गतिरूप संसार-परिभ्रमणरूप है, उस विचित्र कर्मबन्धन से भगवान् मुक्त है, वे कृतकृत्य है, उनका कार्य पूर्णरूप से मिद्ध हो चुका है। किन्तु जगत्कर्ता के ब्रह्म में लीन हो जाने को पूर्णता मानने से सिद्ध मात्मा की पूर्णता नहीं होती। क्योंकि उनके मतानुसार ब्रह्मा पुनः जगत् की रचना करते हैं, इसलिए आत्मा की पूर्णता का कार्य अधूग ही है। इतना ही नहीं, परन्तु जगत् की रचना मे एक को हीन दूसरे को उत्तम बनाने से ब्रह्मा में रागद्वेप की भी सिद्धि होती है ; क्योंकि रागद्वेष के बिना जीवों की सुखदुःखयुक्त अवस्था कस बनाई जा सकती है ? कोई किसी में विलीन हो (मिल) जाय, यह बात भी असंगत है ; क्योंकि ऐसा होने पर तो उस आत्मा का अस्तित्व ही खत्म हो गया, उसका तो सर्वथा अभाव हो गया । इस कारण जगतकर्ता में मिलने की बात अज्ञानमूलक है । अतः यह सिद्ध हो जाता है कि तीर्थकर की आत्मा स्वय कर्म से मुक्त होती है, उसी तरह वह दूसरी आत्माओं को (प्रेरणा दे कर) कर्ग-बन्धन से मुक्त भी करती है । अतः भगवान् स्वयं मुक्त है. और दूसरों को मुक्त कगते हैं । इस तरह भगवान रागद्वेष को जीतने-जिताने वाले, तरने-तराने वाले, ज्ञानवान एव ज्ञानदाता, मुक्त और मुक्त कराने वाले होने से वे अपनी तरह दूसरों को भी सुखफल देने वाले हैं। इस तरह चार पद से 'अपने समान दूसरे को फल देने वाले नाम की आठवी सपदा कही। अब 'बुद्धि के योग से ज्ञान होता है, ऐसा मानने वाले साम्यदर्शनकार भगवान् को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी नहीं मानते हैं। वे कहते हैं कि 'बुद्ध यध्यवसितमयं पुरुषश्चेतयते' अर्थात् बृद्धि से विचारे हुए अर्थ को ही आत्मा जानता है। इसका अर्थ यह हुआ कि आत्मा स्वयं ज्ञान-दर्शन वाला नहीं हो सकता; परन्तु बुद्धि के द्वारा होने वाले अध्यवसाय से ही वह पदार्थ को जान सकता है। उनकी इस मान्यता का खण्डन करते हुए कहते हैं-"सम्वन्न गं सव्वारसीणं" अर्थात् समस्त पदार्थों को जाने, वह सर्वज्ञ और सब को देखे, वह सर्वदर्शी है । ऐसे मर्वज्ञाता सर्वद्रष्टा भगवान् को नमस्कार हो । आत्मा का स्वभाव स्वयं जानना और देखना है, परन्तु कर्मरूपी आवरण से वह अपने स्वभाव का उपयोग नहीं कर सकता है, जब कर्म-आवरण हट जाता है, तब ज्ञान-दर्शन-रूप स्व-स्वभाव से आत्मा मर्व पदार्थों को जानता देखता है। कहा भी है कि 'आत्म। स्वयं स्वभावतः निर्मल चन्द्र-समान है, चन्द्रकिरणों के समान आत्मा का ज्ञान है। चन्द्र पर जैसे वादल क आवरण आजाते हैं, वैसे ही जीव पर कर्मरूपी बादल छा जाते है ।' ओर ऐसा एकान्त भी नहीं है कि आत्मा को बुद्धिरूपी कारण के बिना बुद्धि का फलरूप विज्ञान नहीं होता । वास्तव में