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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश अर्थात् जिस स्थान से फिर इस संसार में आना अथवा अवतार लेना नहीं होता। 'सिद्धिगई नामधेयं' अर्थात् जिनका सम्पूर्ण कार्य सिद्ध हो गया है, जो कृतकृत्य हो चके हैं, जिन जीवों का प्रयोजन समाप्त हो गया है, उनका वह स्थान चौदहवें राज लोक के ऊपर अनन्तवें भाग में लोक के अग्रभाग पर स्थित सिद्धिगति नाम से पुकारा जाता है. कर्म से मुक्त आत्माओं का ही उस स्थान पर गमन होने से सिद्धिगति, नाम वाला उत्तम 'ठाणं' अर्थात शुद्धात्माओं के स्थिर रहने का स्थान, व्यवहारनय, से 'सिडिक्षेत्र' कहा जाता है । जैसा कि कहा है- "इह बोंदि चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्माइ" अर्थात इस मनुष्यलोक के अन्तिम शरीर का त्याग करके, मिद्धक्षेत्र में जा कर सदा के लिए सिद्ध स्थिर हो जाते हैं।' निश्चय नय से तो आत्मा अपने मूल स्वरूप में ही रहता है और अपने स्वरूप में ही आनंद मानता है, सर्वभाव आत्मभाव में रहते हैं, कोई द्रव्य अपने मूलस्वरूप को नहीं छोड़ता है। पहले कहे अनुसार शिवं, अवलं आदि विशेपण मुक्तात्माओं के लिए है, फिर भी स्थान और स्थानी के अभेद से उपचार द्वारा वहाँ रहने वाले स्थानी का लक्षण स्थान में भी घटा देते हैं। 'संपत्तागं' इस प्रकार के स्थान को प्राप्त करने वाले अर्थात् सम्पूर्णरूप से कर्मक्षयरूप संसारी-अवस्था से रहित होने से स्वाभाविक आत्म-स्वरूप प्रगट होने से सिद्ध आत्मा अपना शुद्ध स्वरूप प्राप्त करता है। उस आत्मा को विभु-व्यापक मानें तो ऊपर कहे अनुसार व्यवहार और निश्चयनय के उसे सिद्धि-स्थान प्राप्त नही हो सकता, क्योंकि सर्वगत-व्यापक मानने से सदा सर्वत्र एक-स्वरूप में एक सरीखी स्थिति में रहते हैं, कोई भी स्थान नही बदलते हैं और उससे उनका भावस्वरूप नष्ट नहीं होता है, वे नित्य हैं। व्यापक आत्मा के लिए ऐसा एकान्ततः घटित नहीं होगा। इसलिए उनकी संसारी अवस्था नष्ट हो गई और वे अपने स्वरूप में रहते हैं उनसे हेरफेर नहीं होता है, इससे यह निश्चय हुआ कि जो क्षेत्र से सर्वव्यापक नहीं है, वे ही संसारी अवस्था-त्यागरूप मोक्ष अथवा सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए ही 'कायाप्रमाणमात्मा' अर्थात्मात्मा अपने शरीर-प्रमाण नाप वाला होता है ; ऐसा जो कहा है वह यथार्थ वचन है। ऐसे भगवान् को नमस्कार हो । बुद्धिमान् आत्माओं को ऐसे ही भगवन्तों को नमस्कार करने चाहिए।
इस सूत्र में आदि और अन्त में नमस्कार किया है। इससे मध्य में रहे सभी पदो में नमस्कार का सम्बन्ध जोड़ना चाहिए । और भय को जितने वाले भी अरिहंत भगवान् ही हैं ऐसा प्रतिपादन करते हुए उपसंहार करते हैं 'नमो जिणाणं निमभयाणं' अर्थात् श्री जिनेश्वर भगवान् को नमस्कार हो तथा जिन्होने समस्त भयों को जीत लिया है, उन अरिहन्त भगवान् को नमस्कार हो। इस तरह 'सम्बनणं सम्वदरिसीण' से ले कर 'नमो जिणाणं जिअभयाणं' तक इन तीनों वाक्यों से ज्ञानदर्शनादि मुख्य गुण, जो कभी क्षय न होंगे, ऐसे मोक्षरूप प्रधानफल की प्राप्ति नाम की नौवी संपदा जानना । यहाँ शंका करते हैं कि क्या एक ही प्रकार के विशेषणों से बार-बार स्तुति करने से पुनरुक्तिदोप नहीं लगता? इसका उत्तर देते हैं कि 'स्तुति आदि बार-बार कहने पर भी पुनरुक्ति दोष नहीं होता । कहा भी है कि 'स्वाध्याय, ध्यान, तप, औषध, उपदेश, स्तुति, दान, और विद्यमान गुणों का कीर्तन वार-बार करने पर भी पुनरुक्ति दोष नहीं माना जाता । इसी प्रकार इस सूत्र में पुनरुक्ति दोष नहीं है । यह नमुत्युगंनमस्कार कराने वाला होने से नो सम्पदाओं वाला होने से इसका दूसरा नाम 'प्रणिपातदण्डक' सूत्र भी है। श्री जिनेश्वर भगवान् तीर्थ स्थापना करते हैं, उससे पहले जन्मादि-कल्याण के समय में अपने विमान में बैठे हुए शक-इन्द्र महाराज इस 'नमुत्थुणं सूत्र' से तीर्थकर-प्रभु की स्तुति करते हैं; इस कारण इसे शत्रस्तव-सूत्र भी कहते हैं । इस सूत्र में अधिकतर भाव-अरिहन्त को ले कर स्तुति की गई है। फिर भी स्थापना-अरिहंतरूप तीर्थकरदेव की प्रतिमा में भाव-अरिहंत का मारोपण करके प्रतिमा के सम्मुख यह