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तीर्थकर के मुक्त होने के बाद की स्थिति का स्तुतिमूलक वर्णन
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कारण, कार्य की सिद्धि तक ही उपयोगी होता है, उसके बाद उसकी आवश्यकता नही है । जीव के कर्मरूप आवरण, जब तक टूटते नहीं, जब तक बुद्धिरूप कारण की आवश्यकता रहती है, परन्तु सम्पूर्ण आवरण टूटने के बाद आत्मा का ज्ञान स्वभावतः स्वनः प्रगट हो जाता है ; बुद्धि उसके लिए कोई उपयोगी नहीं रहती। जिसमें तरने की शक्ति न हो, उसके लिए नोका आदि उपयोगी होती है । परन्तु जिममें तरने की शक्ति प्रगट हो गई हो उमे नौका आदि की आवश्यकता नहीं है। इसी तरह भगवान् में सहज ज्ञानदर्शन गण पूर्णतया प्रगट हो चके हैं. फिर उन्हें वृद्धि की आवश्यकता नहीं है, वे उसके बिना सब कर जान सकते हैं और देख सकते है । अतः बद्धिरूप कारण के बिना ही वे सर्वज्ञ ओर सर्वदर्शी है। दूसरे भी ऐसा कहते हैं कि ज्ञान सभी पदार्थों के विशेषधर्म को बताता है और दर्शन सम्मान्यधर्म को । इमलिए एक दूसरे का विषय नहीं होने से 'सवं जानते हैं और सर्व देखते हैं ; ऐमा कहना अयुक्त है। कदाचित ज्ञान और दर्शन दोनों मिल कर सब कुछ जान या दख मकत है, यह कहना युक्तियुक्त है। ज्ञान स्वतन्त्रता से न तो जान सकता है और न देख सकता है, यह कथन भी युक्त नहीं है, क्योंकि. वस्तुत: सामान्य और विशंप इन दोनों में भिन्नता नही है। जिम पदार्थ म सामान्यधर्म है, उस पदार्थ में विशप का भी धर्म होता है। अर्थात् सामान्य और विशेप धर्म जिस पदार्थ का है, उसका पदार्थ-रूप धर्म का आधार (धी) एक ही है
और इसमे उसके उसी भाव को जीव ज्ञानस्वभाव मे तारतम्य रूप में और दर्शनस्वभाव स सामान्य-रूप में जानता है और देखता है । क्योकि सर्वपदार्थ ज्ञान-दर्शन के पृथक्-पृथक् होते हुए भीगे नहीं है । यहाँ फिर शंका करते हैं कि ज्ञान से समस्त पदार्थों का विशेष तारतम्य-रूप धर्म दिखता है, परन्तु उनमें निहित सामान्य धर्म नहीं दिखता, और दशन से सर्वपदार्थों में मामान्य धर्म दिखता है; परन्तु उनमें निहित तारतम्यरूप विशेषधर्म नहीं दिखता। इन दोनों में से प्रत्येक दोनों धर्मों को नहीं जानता; अपित, दोनों धर्मों में से केवल एक धर्म को जानता है। किन्तु जो यह मानते हैं कि एक धर्म का ज्ञाता ज्ञानसर्वज्ञाता है तथा एक ही धर्म का द्रष्टा दर्शन सर्वदर्शी है, यह अनुचित है।' इसका उत्तर यों देते हैं 'यह कहना यथार्थ नहीं हैं ; क्योंकि सामान्य और विशेषरूप धर्म और उसके आधारभूत पदार्थरूप धर्म एकान्ततः भिन्न ही हैं, ऐसा नहीं है । इस कारण गौणरूप में जिनमें सामान्यसत्ता समान है, ऐसे सभी पदार्थों को आत्मा ज्ञान से विशेषरूप में जानता है और गौणरूप में जिनमें विशेषता है, ऐसे सभी पदार्थों को वही आत्मा दर्शन से सामान्यरूप में देखता है ; इस तरह ज्ञान भी सर्वपदार्थ का ज्ञायक है, और दर्शन भी सर्वपदार्थ का दर्शक है । इस तरह भगवान् सम्पूर्ण ज्ञान-दर्शन-गुणयुक्त हैं। इस कारण वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं।
ऐसा होने पर भी आत्मा को सर्वगत (व्यापक) मानने वाले मुक्त हाने के बाद भी आत्मा को सर्वगत मानते हैं ; वे यह नहीं मानते कि मुक्तात्मा किसो नियत स्थान पर रहता है । उनका कहना है'मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति व्योमवत्तापवजिताः' अर्थात् मुक्त आत्माएँ आकाश के समान तापरहित हो कर सर्वत्र व्यापकरूप में रहती हैं । उस मत का खंडन करनेहेतु कहते हैं -सिवमयलवमरुयमणंतमक्खयमब्बावाहमपण. रावित्ति-सिद्धिगइ-नामधेयं ठाणं संपत्तागं' इसमें प्रथम शब्द है 'शिवं' अर्थात् सर्वउपद्रवरहित, 'अयल' यानी अपने स्वभाव से अथवा किसी भी प्रयोग से जो चलायमान न हो, ऐसा अचल है। अत्य' अर्थात् रोगरहित हैं, क्योकि व्याधि और वेदना के कारणभूत शरीर और मन का वहाँ अभाव ही है । 'अगंत' अर्थात् वहाँ रही हुई आत्माएं ज्ञानादि अनन्तचतुष्टय से युक्त है । 'अक्लयं' अर्थात् कभी नाश नहीं होने वाला वह शाश्वत स्थान है, 'अब्बाबाह' अर्थात् कर्म नहीं होने से बाधा-पीड़ा से रहित स्थान है 'अपुणराविति'