________________
३४०
योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश
पालन किया है, एवं उसका उत्तम फल भोग रहे हैं। उनके जीवन में धर्म का विघात या विरह कभी नहीं होता; इस कारण वे ही धर्म के नायक हैं। तथा धम्मसारहाण=अर्थात् धर्म के सारथी भगवान को नमस्कार हो । भगवान् चारित्रधर्म मे सम्यक्प्रवृत्ति और उसका पालन स्वयं करते हैं और दूसरों से करवाते हैं तथा इन्द्रियों का स्वय दमन करते हैं और दूसरों से कराते हैं, इसलिए वे धर्मरूपी रथ के वास्तविक सारथी हैं। तथा 'धम्मवरचाउरंतचक्कबट्टोणं' =अर्थात् श्रेष्ट चातुरन्त धर्मचक्रवर्ती श्री अरिहन्त भगवान को नमस्कार हो । यहाँ धर्म का अर्थ चारित्रधर्म समझना। यह धर्म कष, छेदन और ताप से अत्यन्त शुद्ध होता है। बौद्ध आदि द्वारा कथित धर्म चक्र की अपेक्षा ठीक है चक्रवर्ती का
न इस लोक का ही हितकारी है, जब कि यह विरतिरूप धर्मचक्र तो दोनों लोक में हितकारी है। इस कारण से यह धर्मचक्र सर्वश्रेष्ठ है तथा नरक, तिर्यच, मनुष्य और देवरूप चार गतिरूप संसार का अन्त करने वाला होने से वह चातुरन्त है। फिर यह विर्रा धर्म रौद्रध्यान, मिथ्यात्व आदि भावशत्रुओं का नाश करने वाला होने से चक्र के समान है। इस तरह भगवान् श्रेष्ठ चातुरन्त धर्मचक्र के प्रवर्तक धर्मचक्रवर्ती हैं। इस प्रकार 'धर्मदाता' आदि पांच प्रकार में भगवान की विशेष उपयोगिता बता कर स्तोतव्य-संपदा की विशेष उपयोगी नाम की उनकी यह छठी संपदा कही । अब बौद्धों की इस मान्यता का खण्डन करते है कि सर्वज्ञ सभी पदार्थों का ज्ञाता नहीं होता, केवल ईष्ट तत्वों का ही ज्ञाता होता है। वे कहते हैं-'जगत् की सभी वस्तुओं को अथवा उमवे भावों या पर्यायों को जाने या न जाने, सिर्फ इष्टतत्त्वों को जान लेना ही सर्वज्ञ के लिए बस है। ऐसे सर्वज्ञ को कीड़ों की संख्या के परिज्ञान से क्या मतलब है ?' उनका खण्डन करने की दृष्टि से कहते हैं
'अप्पडिहय-वरनाणसणधराणं-अर्थात अप्रतिहत (खंडित न होने वाले) ज्ञान-दर्शन के धारक भगवान को नमस्कार हो । यहाँ पर किसी भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में खण्डित न हो कर सर्वदा स्थायी एवं अप्रतिबन्धित होने से, इन्हें 'अप्रतिहत' कहा है। तथा समस्त कर्मों के आवरणों का क्षय हो जाने से क्षायिक भाव प्रगट हुआ; उमसे प्रत्येक सर्वश्रेष्ठ विशेष-बोधरूप केवलज्ञान और सामान्य बोधरूप केवलदर्शन को धारण करते हैं, वे अप्रतिहत-ज्ञानदर्शनधारक कहलाते हैं। भगवान् के ज्ञानदर्शन आवरणों से सर्वथा मुक्त होते हैं और उनसे मभी विषयों का ज्ञान और दर्शन उन्हें होता है। इसमें भी पहले ज्ञान और फिर दर्शन होता है ; इस कथन का कारण यह है कि जीव को समस्त लब्धियां जब साकार (ज्ञान) का उपयोग होता है ; तभी प्रगट होती हैं, इसलिए ज्ञान को प्राथमिकता और विशिष्टता दी है। ऐसे ज्ञान-दर्शनयुक्त ईश्वर को भी कई दार्शनिक 'छमस्थ' (संसारी) मानते हैं । उनका कहना है'धर्मतीर्थ के रचयिता ज्ञानी-पुरुष परमपद मोक्ष को प्राप्त हो जाने पर तीर्थ-(धर्म) रक्षा के लिए फिर संसार में लौट आते हैं । "जिनका कर्मरूपी इंधन जल गया है तथा जो संसार का नाश कर चुके हैं ; वे पुन. संसार में जन्म लेते हैं. और स्वयं द्वारा स्थापित धर्म-तीर्थ का कोई नाश कर देगा, इस भय से मोक्ष में गए हुए भी वे वापिस लौट आते हैं।" इस दृष्टि से तो उनका मोक्ष भी अस्थिर है और स्वयं मुक्त भी हैं और संसारी भी हैं । फिर भी दूसरों को मोक्ष देने में शूरवीर हैं। अहो भगवन् ! आपके शासन से भ्रष्ट लोगों पर ऐसा विसंवादरूप मोहराज्य का चक्कर चल रहा है ! इस मान्यता का खंडन करने के हेतु कहा -- "विअट्टछउमाणे' अर्थात् आत्मा के ज्ञानादि गुणों को ढकने वाले ज्ञानावरणीय आदि कर्म तथा उस कर्मबन्धन के योग्य जो अशुद्ध संसारी अवस्था-छा अवस्था है, वह छद्म-अवस्था उनकी खत्म हो गई है, अतः उन्हें 'विमट्टछउमाणे' कहते हैं । जिनकी छमावस्था चली गई ; उन भगवन्तों को नमस्कार हो । जब तक संसार (छद्मावस्था) नष्ट न हो, तब तक मोक्ष नहीं होता, और मोक्ष होने के