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कायोत्सर्ग, उसके आगार एवं चैत्यवन्दन के प्रकार
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उसे बचाने के लिए खिसके या कायप्रवृत्ति करे तो काउस्सग्ग-भंग नहीं होता । तथा चोर, राजा अथवा एकान्त स्थान में भय का कारण उपस्थित होने पर या खुद को अथवा अन्य साधु को सर्प ने काट खाया हो तो बीच में ही 'नमो अरिहंताणं' का सहसा उच्चारण करके कायोत्सर्ग पार ले तो काउस्सग्ग-भग नहीं होता । कहा भी है- अग्नि के फैलने से, जलने से, पंचेन्द्रिय जीव बीच में से हो कर निकल रहा हो या चोर, राजा आदि का उपद्रव हो अथवा सर्प के काटने से ; इन आगारों से काउस्सग्ग भंग नहीं होता है ।
आगार का व्युत्पत्तिलम्य अर्थ है - 'आक्रियन्ते आगृह्यन्ते इत्याकारः आगारः' । जो अच्छी तरह से किया जाए या अच्छी तरह से ग्रहण किया जाए, उसे आगार कहते हैं । आगार का रहस्य हैकायोत्सर्ग में गृहीत अपवाद । ऐसे आगार न रहें तो कायोत्सर्ग सर्वथा भग्न = विनष्ट नहीं हो तो भी देशतः मग्न ( नष्ट) हो ही जाता है। जबकि कायोत्सर्ग में विद्यमान ऐसे आगारों से वह अविराधित होता है । अर्थात् कायोत्सर्ग का भंग नहीं होता है । वह कितने समय तक ? 'जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमोक्कारेणं न पारेमि' अर्थात् जब तक अरिहन्त भगवान् को नमस्कार बोल करके'नमो अरिहंताणं' शब्दों का उच्चारण करके उसको न पार लूं । कायोत्सर्ग पूर्ण होने तक क्या करना है ? इसे कहते हैं ताव कार्य ठाणे मोणेणं झाणंणं अप्पाणं वोसिरामि' अर्थात् तब तक अपनी काया को स्थिर, निश्चल, मौन और ध्यान में एकाग्र करके कायोत्सर्गमुद्रा में रखता हूँ । भावार्थ यह है कि 'तब तक अपनी काया को स्थिर करके मौन और ध्यानपूर्वक मन में शुभचिन्तन करने के लिए 'बोसिरामि' अर्थात्, अपने शरीर को अशुभ व्यापार (कार्य) से निवृत्त (अलग) करता हूं ।' कितने ही साधक 'अप्पानं' पाठ नहीं बोलते । इसका अर्थ यह हुआ कि पच्चीस श्वासोच्छ्वास - काल- पर्यन्त खड़ा हो कर घुटने के दोनों ओर हाथ नीचे लटका कर वाणीसंचार रोक कर श्रेष्ठध्यान का अनुसरण करता हुआ, मौन और ध्यानक्रिया से भिन्न अन्य क्रिया के अध्यास द्वारा त्याग करता हूं।' 'लोगस्स उज्जोदगरे' से ले कर 'चंदेसु निम्मलयरा' तक २५ उच्छ्वास पूर्ण होते हैं। प्रमाण है । कायोत्सर्ग सम्पूर्ण होने के बाद 'नमो अरिहंताणं' कर पूरा 'लोगस्स' का पाठ बोले । यदि गुरुदेव हों तो उनके तो मन में गुरु की स्थापना करके ईर्यापथप्रतिक्रमण करके जघन्य और मध्यम चैत्यवन्दन तो ईर्यापथिक प्रतिक्रमण के बिना भी हो सकता है ।
इसके लिए 'पायसमा ऊसासा' यह वचन इस प्रकार बोल कर नमस्कारपूर्वक पार समक्ष प्रगट में बोले; और गुरुदेव न हों बाद में उत्कृष्ट चत्यवन्दन आरम्भ करे ।
यहाँ नमस्कारपूर्वक 'णमो अरिहंताणं' पद बोलना चाहिए और उत्तमकवियों द्वारा रचित काव्य बोल कर चैत्यवन्दन करना चाहिए। उदाहरणार्थ - ' वीतरागप्रभो ! आपका शरीर ही आपकी वीतरागता बतला रहा है; क्योंकि जिस वृक्ष के कोटर में आग हो, वह वृक्ष हरा नहीं दिखाई देता । कई आचार्य कहते है – केवल प्रणाम करना जघन्य चत्यवन्दन है । प्रणाम पांच प्रकार के हैं - ( १ ) केवल मस्तक से नमस्कार करना, एकांग प्रणाम है, (२) दो हाथ जोड़ना, द्व, यंग प्रणाम है, (३) दो हाथ जोड़ना और मस्तक झुकाना त्र्यंग प्रणाम है, (४) दो हाथ और दो घुटनों से नमन करना चतुरंग प्रणाम है, और (५) मस्तक, दो हाथ और दो घुटने, इन पांच अंगों से नमस्कार करना पंचांग प्रणाम है । मध्यम चैत्यवन्दन तो भगवत्प्रतिमा के आगे स्तव, दण्डक और स्तुति के द्वारा होता है । इसके लिए कहा है- केवल नमस्कार से जघन्य चैत्यवन्दन, दण्डक और स्तुति से मध्यम चत्यवन्दन और विधिपूर्वक उत्कृष्ट चैत्यवन्दन है । ये तीन प्रकार के चैत्यवदन हैं। उत्कृष्ट चेत्यवन्दन के इच्छुक सर्वविरति साधु,