________________
योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश नहीं है। 'शप्त वस्तु के बताने में ही शास्त्र की सार्थकता है, यह पहले कहा जा चुका है। मन्दिर में प्रवेश की विधि इस प्रकार है-यदि राजा हो तो समस्त ऋद्धिपूर्वक सर्व-सामग्री, सर्व-धृति, सर्वसैन्य-परिवार, सर्व-पराक्रम इत्यादि प्रभावना से बड़े वैभवपूर्ण ठाठ-बाठ के साथ जाए। यदि सामान्य वैभवसम्पन्न हो तो मिथ्याडम्बर किए बिना लोगों में हास्यपात्र न हो, इस तरह से जाय । उसके बाद
प्रविश्य विधिना तत्र त्रिः प्रदक्षिणयेज्जिनम् ।
पुष्पादिभिस्तमभ्यर्च्य, स्तवनैरुत्तमः स्तुयात् ॥१२३॥
अर्थ-जिनमंदिर में विधिपूर्वक प्रवेश करके प्रभु को तीन बार प्रदक्षिणा देकर पुष्प आदि से उनको अर्चना करके उत्तम स्तवनों से स्तुति करे।
व्याख्या-प्रभुमन्दिर में विधिपूर्वक प्रविष्ट हो कर श्रीजिनेश्वर भ० को तीन प्रदक्षिणा करनी चाहिए। श्रीजिनमंदिर की प्रवेशविधि इस प्रकर है-पुष्प, ताम्बूल आदि सचित्त द्रव्य तथा छुरी, पादुका, शस्त्र आदि अचित्त पदार्थो का त्याग कर, उत्तरासंग (दुपट्टा) डाल कर मंदिर जाए । वहाँ प्रभु के दर्शन होते ही अंजलि करके उस पर मस्तक स्थापन कर मन को एकाग्र करके पांच अभिगम का त्याग कर 'निसिहि निसिहि' करते हुए मंदिर में प्रवेश करे । यही बात अन्यत्र भी कही है कि- सचित्त वस्तुओं के त्यागपूर्वक, अचित्त वस्तुओं को रख कर अखंड-वस्त्र का एक उत्तरासंग धारण करके आँखों से दर्शन होते ही मस्तक पर दोनों हाथ जोड़ कर और मन की एकाग्रतापूर्वक प्रवेश करे । यदि राजा हो तो भगवान् के मंदिर में प्रवेश करते समय वह उसी समय राजचिह्न का त्याग करता है । अतः कहा है कि 'तलवार, छत्र, पदत्राण (जूते) मुकुट और चामर इन पांचों राजचिह्नों का मंदिर में प्रवेश करते ही त्याग करे । 'पुष्प' आदि से यहां मध्य का ग्रहण किया गया है। इसलिए "मध्य प्रहण से आदि और अन्त का भी ग्रहण कर लिया जाता है;" इस न्याय से नित्य और पर्व दिनों में विशेष प्रकार से स्नात्रपूर्वक पूजा करनी चाहिए । स्नात्र के समय पहले सुन्धित चन्दन से जिनप्रतिमा के तिलक करना, उसके बाद कस्तूरी, अगर कपूर और चन्दन-मिश्रित सारभूत सुगन्धियुक्त उत्तम धूप प्रभु के आगे जलाए । धूप खेने के बाद समस्त औषधि आदि द्रव्यों को जलपूर्ण कलश में डाल दे, बाद में कुसुमांजलि डाल कर सर्व औषषि कपूर, केसर, चन्दन, अगुरु आदि से युक्त जल से तथा घी, दूध आदि से प्रभ को स्नान करावे । उसके बाद चन्दन घिस कर प्रभु के विलेपन करे । तत्पश्चात् सुगन्धित चम्पक, शतपत्र कमल, मोगरा, गुलाब आदि की फूलमालाओं से भगवान की पूजा करे । बाद में रत्न, सुवर्ण एवं मोतियों के आभूषण से अलंकृत वस्त्रादि से आंगी रचे । उसके बाद प्रभु के सम्मुख सरसों, शालि, चावल आदि से अष्टमंगल का आलेखन करे । तथा उनके आगे नैवेद्य, मंगलदीपक, दही, घी आदि रखे । भगवान् के मालस्थल पर गोरोचन से तिलक करे । उसके बाद आरती उतारे। अतः कहा भी है-'श्रेष्ठगन्धयुक्त धूप, सर्व-औषधिमिश्रित जल, सुगन्धित विलेपन, श्रेष्ठ पुष्पमाला, नैवेद्य, दीपक, सिद्धार्थक (सरसों), दही अक्षत, गोरोचन आदि से सोने, मोती व रत्न के हार आदि उत्तम द्रव्यों से प्रभु-पूजा करनी चाहिए।' क्योंकि श्रेष्ठसामग्री से की हुई पूजा से उत्तम भाव प्रकट होते हैं। इसके बिना लक्ष्मी का सदुपयोग नहीं हो सकता।' इस तरह श्री जिनेश्वर भगवान् की भक्तिपूर्वक पूजा करके ऐपिथिक प्रतिक्रमण सहित सास्तव (नमुत्थुणं) मादि सूत्रों से पैत्यवंदन करके उत्तम कवियों द्वारा रचित स्तवनों से भगवान् के गुणों का कीर्तन करना चाहिए । उत्तम स्तोत्र का लक्षण यह है-वह भगवान के शरीर, क्रियाओं व गुणों को बताने वाला, गंभीर, विविध वर्गों से गुम्फित, निर्मल आशय का उत्पादक, संवेगवर्द्धक, पवित्र